सोमवार, 1 सितंबर 2008

सोम्दा के बहाने हमारे बुद्धिजीवी, पत्रकार और नैतिकता के सवाल


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी
"सोमनाथ चटर्जी " के मुद्दे पर हिन्दी मीडिया डॉट इन पर मेरा ३० अगस्त को और emsindia.com पर २९ अगस्त को प्रकाशित लेख "सोमदा के बहाने हमारे बुद्धिजीवी, पत्रकार और नैतिकता के सवाल " पढ़ें और अपनी बहुमूल्य प्रतिक्रिया से भी अवगत कराने का कष्ट करें साभार
अमलेंदु उपाध्याय

सोमदा के बहाने हमारे बुद्धिजीवी, पत्रकार और नैतिकता के सवाल
अमलेन्दु उपाध्याय
भारत की मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने अपने लोकसभा सदस्य और लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी को पार्टी से निष्कासित क्या किया देश के बड़े बुद्धिजीवी और वरिष्ठ पत्रकार बेचैन हो गये। इनमें से अधिकांश को कोई आश्चर्य इसलिये नही हुआ, चूँकि उनका मानना था कि माकपा एक कट्टर दल है और वहॉ तानाशाही का बोलबाला है।
हमारे देश में एक चलन रहा है कि स्वयं को ज्ञानवान साबित करने के लिये और देशभक्त साबित करने के लिये वामपंथियों को गाली दो। इस प्रवृत्ति का शिकार हमारा तथाकथित राष्ट्रीय मीडिया भी रहा है। एक समाचार पत्र जो कभी देश के सबसे बडे पूंजीपति रहे घराने का है और उसकी सम्पादिका एक बड़ी साहित्यकार है और चूँकि एक बड़ी साहित्यकार की पुत्री हैं इसलिये भी बड़ी साहित्यकार है, ने एक पूरी मुहिम सरकार के पक्ष में चलाई और वामपंथियों को पानी पी पीकर कोसा। इन सम्पादिकाजी का जब इन्टरनेट पर ब्यौरा खॅगाला गया तो उसमें उनकी जीवनी में उनका घर खण्डवा दर्ज था लेकिन, जब उनका अखबार देहरादून से अपना संस्करण प्रारम्भ करता है तो उन्हें उत्तराखण्ड का गौरव बताता है। अखबार उन्हें उन दो लोगों में शुमार करता है जो उत्तराखण्ड को नई पहचान दे रहे हैं। है न काबिले तारीफ! अब सुन्दरलाल बहुगुणा, नारायणदत्त तिवारी जैसे लोग उत्तराखण्ड की पहचान नहीं रहे। यह समूह एक समय में आपातकाल का भी समर्थक रहा है। इस समाचारपत्र में एक वरिष्ठ पत्रकार की व्यथा थी कि चूँकि माकपा कट्टर है इसलिये सोम दा को उसने निकालकर बाहर कर दिया।यह बड़े पत्रकार बता रहे थे कि माकपा की सदस्य संख्या सत्ता में आने के बाद तीन गुनी हो गयी है। इसलिये माकपा के कैडर में प्रतिबद्धता की कमी है। तर्क कुछ माकूल सा लग सकता है, लेकिन फिर तो कॉग्रेस के कैडर में प्रतिबद्धता बची ही नहीं होगी चूँकि वो तो छ: दशक से सत्ता में है। यहॉ दो घटनाओं का उल्लेख किया जा सकता है। पिछले बंगाल विधानसभा चुनाव से एक व्रष पहले माकपा ने अपने ७० विधायकों के टिकिट काटने की घोषणा कर दी, इसके बाद राज्यसभा के चुनाव हुए किसी भी माकपा विधायक ने क्रास वोटिंग नहीं की जबकि ठीक उसी समय उत्तर प्रदेश में ''डिफरेन्ट विद अदर्स`` का दावा करने वाली पार्टी के विधायकों ने लालबहादुर शास्त्री के बेटे को वोट न देकर क्रास वोटिंग करके शराब व्यवसायी को बोट करके जिता दिया। जबकि अभी सपा के ६ सॉसदों ने अपना टिकिट पक्का न मानकर क्रॉस वोटिंग की। क्या माकपा का यह कैरेक्टर किसी दल में है?यहॉ एक बात तो इन तथाकथित बडे बुद्धिजीवियों और बडे पत्रकारों से पूछी जा सकती है कि भारतीय संविधान की वो कौन सी धारा है जिसमें यह प्रावधान है कि लोकसभा अध्यक्ष पार्टी का सदस्य नहीं माना जायेगा? यह भ्रम फैलाने का एक प्रयास है कि व्यक्ति संस्था से बड़ा होता है ताकि मनमोहन सिंह को देश से भी बड़ा साबित किया जा सके। आखिरकार सोमदा थे तो माकपा के ही सदस्य। और अगर सोमदा इसलिये स्वीकार्य थे कि उन्होंने पूरी निष्पक्षता से सदन चलाया। तो जो यह तर्क दे रहे हैं कि, अगर राष्ट्रपति माकपा कार्यकर्ता होता तो माकपा उससे भी इस्तीफा देने के लिये कहती, उन लोगों से यह भी तो कहा जा सकता है कि अगर सोमदा इतने ही पसन्द हैं तो अगला राष्ट्रपति सोमदा को ही बना दें?
इन वरिष्ठ पत्रकार महोदय को सोमदा के निष्कासन का दर्द है। लेकिन उन्हें ८४ वर्ष में साम्प्रदायिक ताकतों से संघर्ष करते सीताराम केसरी के अपमान पर कोई मलाल नहीं है। सोमदा के निष्कासन पर स्यापा करने वाले जरा यह भी तो बतायें कि क्या सोनिया की सात पीढि़यों में यह दम था कि वो नरसिंहाराव से सीधे पार्टी की कमान ले सके? क्या कॉग्रेस का स्व. केसरी से वो बर्ताव उचित था? याद कीजिये केसरी जी को एक तरीके से धक्के मारकर २४ अकबर रोड से बेदखल किया गया था।
अब संसदीय मर्यादा के पालन और लोकतांत्रिक परम्पराओं के ऊपर भाषण वो लोग दे रहे हैं जिन्होंने राष्ट्रपति जैसे सर्वोच्च संवैधानिक पद को २६ जून १९७५ को रबर स्टाम्प बनाकर आपातकाल थोपा था। अगर हमारे इन तथाकथित वरिष्ठ पत्रकारों की स्मृतिलोप नहीं हुई है तो जब संयुक्त मोर्चा की सरकार बनी थी तब शपथग्रहण समारोह में तत्कालीन राष्ट्रपति स्व० शंकरदयाल शर्मा से रामविलास पासवान की अशिष्टता का भी जिक्र कर लिया होता। हाल ही में जब प्रतिभा ताई पाटिल राष्ट्रपति निर्वाचित हुईं तब एक क्लिपिंग बार बार दिखाई गई कि सोनिया उनके कन्धे पर हाथ रखकर सीधे खडे होने का इशारा कर रही हैं। यह संवैधानिक पदों के प्रति संसदीय आचरण है? इसी देश में लोगों ने लखनऊ में'' राजभवन ``घेरो`` कार्यक्रम होते देखा और बिहार के एक राज्यपाल के लिये -इसकी दूसरी टॉग भी तोड़ दो- का एक मुख्यमंत्री का उद्घोष भी और संसदीय आचरण पर भा।ण भी उन्हीं का?
एक और बडे स्तम्भकार हैं, जो लगभग १०० वर्ष के होने वाले हैं। और यह साहब पाकिस्तान को अपना वतन मानते है और चर्चा है कि इनके पिता ने शहीद-ए-आजम सरदार भगत सिंह के खिलाफ गवाही देकर उन्हें फॉसी के फन्दे तक पहुँचवाया था और बदले में कनाट प्लेस पाया था। पता नहीं यह कितना सच है? ये बड़े स्तम्भकार अब बता रहे हैं कि चुनाव के बाद कारत हाशिये पर पहुँच जायेंगे। अब यह तो समय तय करेगा कि कौन हाशिये पर रहेगा और फ्रंटफुट पर। लेकिन प्रकाश कारत को इस बात का श्रेय दिया जा सकता है (इन बुद्धिजीवियों की नजर से लेकिन मेरी दृष्टि में इसके लिये माकपा को श्रेय दिया जाना चाहिये) कि इकसठ साला लोकतंत्र में पहली बार किसी सरकार को एक राष्ट्रीय मुददे पर विश्वासमत पेश करने के लिये विवश होना पड़ा, वर्ना तो पहले कभी हरियाणा का एक मामूली सा पुलिस का सिपाही या किसी हत्याकाण्ड से जुड़े किसी एक न्यायिक आयोग की अन्तरिम रिपोर्ट भी सरकारों के विश्वासमत और अविश्वासमत का कारण बनती थी, भले ही ६ बरस बाद ही उन्हीं से समझौता हो जाये जिन पर हत्या का आरोप लगाया गया था।
वैसे इस मसले पर एक से बढकर एक तर्क आ रहे हैं। एक विश्लेषक बता रहे थे कि माकपा में सोमदा के मसले पर जबर्दस्त वैचारिक अर्न्तद्वन्द हैं। अब राजनीतिशास्त्र की प्रथम कक्षा का छात्र भी यह समझ सकता है कि वैचारिक अर्न्तद्वन्द वहीं होगा जहॉ विचार होगा। अब इसमें माकपा का क्या दोष है कि वहाँ विचार है वर्ना जहॉ विचार नहीं होता है वहाँ एक घटिया किस्म का दलाल भी किसी व्यक्ति की चालीस साल की राजनीति की अर्थी निकाल सकता है। इस मुददे पर माकपा को गाली देने से बेहतर होता हमारे बुद्धिजीवी इन दलों से कहते कि वो भी अपने यहॉ विचार को प्राथमिकता दें व्यक्ति को नहीं।
देश के बडे़ बुद्धिजीवी हैं मुद्राराक्षस जी। पिछले दो दशक से अधिक से मैं उनके लेख पढकर बहुत कुछ सीखता रहा हूँ। लेकिन, बलिहारी जाऊँ कॉमरेड कारत की कि कुल जमा १० दिनों में उन्होंने मुद्राराक्षस जी की भी जुबॉ बदल दी। १३ जुलाई को मुद्राराक्षस जी ने लिखा-'' देश के दलित आन्दोलन से उच्चवर्गीय वामपंथ इतना ज्यादा चिढ़ता रहा है कि जब बहुजन समाज पार्टी ने एटमी करार को लेकर कॉग्रेस पार्टी का विरोध किया तो वामपंथ की जबान तालू से चिपक गई है..........समूचे देश के दलित -पिछडे वर्ग की सबसे सशक्त नेता मायावती ने जिस वक्त एटमी करार के विरोध में बयान दिया , वामपंथ ने उनके इस निर्णय का स्वागत भी नहीं किया।..........`` लेकिन कारत का कारक मुद्राराक्षस जी पर इतना भारी पड़ा कि ठीक दो हफ्ते बाद ही उन्होंने वामपंथ के लिये लिखा-- '' उन्हें इस बात पर कोई शर्मिन्दगी नहीं होती कि वे गुजरात नरसंहार को सही ठहराने और उसके पक्ष में चुनाव करने वाली ताकतों के बगलगीर होकर राजनीति करते हैं।.........यही वजह है कि जब रुढि़वादी मौका देखता है तो गुजरात नरसंहार कराने वाले और उसके पक्ष में चुनाव प्रचार करने वाले तत्वों के साथ आराम से अपने सैद्धांतिकी तैयार कर लेता है।......वामपंथ चतुराई दिखाता रहा कि साम्प्रदायिकता के विरुद्ध असली लड़ाई मुलायम सिंह लडें और वामपंथ लड़ने का नाटक करता रहे....``
आपने देखा प्रकाश कारत का प्रभाव कि वो मुद्राराक्षस जो मायावती को दलितों और पिछड़ों का एकमात्र प्रतिनिधि बता रहे थे, कुल जमा १० दिन में ही मायावती को मोदी का हमराह बताने लगे। लेकिन मुद्राराक्षसजी उस उमर अब्दुल्ला को सेक्यूलर साबित करेंगे जो मोदी की आका वाजपेयी सरकार में बैठकर मोदी के कारनामों का समर्थन कर रहे थे और करार पर मुलायम सिंह के बगल में खड़े थे? उन्हें उस महबूबा मुफ्ती से भी कोई ऐतराज नहीं है जो दिल्ली में कांग्रेस के समर्थन में खडी थीं और घाटी में '' मुजफफराबाद चलो`` का नारा लगा रही हैं? उन्हें अब बाबरी मस्जिद की कातिल और '' एक धक्का और दो बाबरी मस्जिद तोड़ दो`` का नारा लगा कर मुरलीमनोहर जोशी के कन्धों पर झूलने वाली उमा भारती भी सेक्यूलर नजर आ रही होंगी चूँकि अब वो अमर सिंह से सी डी राइटिंग की कला का पाठ पढ़ आईं है ?
अगर कारत और वर्द्धन कुछ गलत कर रहे हैं तो वो यह कि मायावती को प्रोजेक्ट कर रहे हैं। भारतीय वामपंथ की दुर्दशा का कारण ही यही है कि वो कभी मुलायम और लालू के पीछे चल देता है और कभी सोनिया के। मुलायम सिंह के विश्वासमत से सबक लेकर वामपंथियों को अब तीसरे मोर्चे की लगाम और कमान स्वयं लेनी होगी। रही बात सोम दा की, तो निसंदेह सोमदा अब तक के सबसे श्रेष्ठ लोकसभाध्यक्ष साबित हुए हैं और संसद की पारदर्शिता साबित करने के लिये उनके प्रयास भुलाये नहीं भुलाये जा सकते हैं। और अगर वो कुछ नैतिक कदम उठाने और संवैधानिक मर्यादा कायम रखने में कामयाब रहे हैं तो निश्चित रुप से इसलिये कि उन्होंने नैतिकता की शिक्षा कम्युनिस्ट पाठशाला में पाई है।
यह विवाद से परे है कि सोमदा एक अच्छे स्पीकर साबित हुए है लेकिन अगर वो एक अच्छे कार्यकर्ता भी इस वक्त... साबित होते तो एक नई नजीर बनती जिसका अवसर उन्होंने स्वयं खोया है। हमने देखा है कि जब व्यक्ति, दल पर भारी पड़ जाता है तो वो इन्दिरा गॉधी जिन्होंने अपनी हत्या से तीन दिन पहले घोषणा की थी कि उनके लहू का क़तरा-क़तरा इस मुल्क के काम आयेगा, इसी इन्दिरा गाँधी की तीसरी पीढ़ी का वारिस घोषणा करता है कि सरकार रहे या जाये करार होगा?
( लेखक राजनीतिक समीक्षक और स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

1 टिप्पणी:

बेनामी ने कहा…

पाकिस्तान की आवाम आज जागने का मौका है ,आप का भविष्य ,आप के बच्चो का भविष्य आप के हाथ में है ,फैसला आप को करना है ,आप इंसानियत का साथ देंगे या आतंकवाद का ,जिंदगी प्यार में है न की खून- खराबे में ,हमें सियाशी लोग धर्म के नाम पर आपस में लड़ाते रहेंगे ,इससे न आप को कुछ मिलेगा और न हमें ,मिलेगा तो सिर्फ दुःख और गरीबी इसके सिवाय और कुछ नहीं मिलेगा
अपने लिए नहीं तो अपने आने वाली पीढ़ी के लिए ,नहीं तो हमारी आने वाली पीढ़ी हमें कभी माफ़ नहीं करेगी
ये लोग जो हिंदुस्तान और पाकिस्तान को धर्म ,जाती के नाम पर एक दुसरे का खून बहाते है इन्हें "अल्लाह" या "भगवान" कभी माफ़ नहीं करेगा
मेरा आप लोगो से निवेदन है जागिये नहीं तो हमें आगे जागने का मौका नहीं मिलेंगा ,इस आतंकवाद को जड़ से मिटाए
"इस्लाम" हमें यही सिखाता है की एक दुसरे की सहायता करे न की "इस्लाम" के नाम पर एक दुसरे का खून बहाए
धन्यवाद .........................................................................Please send any one person