गुरुवार, 14 अगस्त 2008

स्वाधीनता दिवस , अमरीका, करार और हमारी राष्ट्रीय भावना


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

अमलेन्दु उपाध्याय ------ अभी बमुश्किल एक दशक बीता होगा जब इस देश ने आज़ादी की पचासवीं सालगिरह मनायी होगी और देश की संसद ने समवेत स्वर से कई महत्वपूर्ण घोशनाएँ की थी। परन्तु यह घोषणाएं और हलफ एक दशक बाद ही संसद में टूटते दिखाई दिए। जब जब देश की आज़ादी का जश्न मनाया जाता है तब तब इस देश के अमर शहीदों की कुर्बानियों को याद किया जाता है कि किस प्रकार इन ज्ञात अज्ञात शहीदों ने कुर्बानियां देकर देश की आज़ादी के लिए संघर्ष किया. लेकिन जब पंचशील सिद्धांत के प्रणेता और आधुनिक भारत [ पूर्व नार्सिन्हाराओ - मनमोहन भारत ] के निर्माता प० जवाहर लाल नेहरु के सिद्धांतों को दफ़न करने के लिए मनमोहन सिंह मौजूद हों, डॉक्टर राम मनोहर लोहिया के सिद्धांतों को शीर्षासन कराने के लिए मुलायम सिंह मौजूद हों तो इस देश की आज़ादी का कैसा जश्न ? आज़ादी के बाद यह पहला अवसर है कि हमारी अर्थव्यवस्था और विदेश नीति की नकेल सीधे सीधे अमरीका के हाथ में है और हमारा नव्ध्नाध्य वर्ग स्वयं को अम्रीकमय होने में गौरवान्वित महसूस कर रहा है॥ बात अगर देश की आर्थिक विकास दर और उन्नति से शुरू की जाए तो सारी दुनिया में १९५० से १९६० के दशक में भारत की विकास दर बाकी दुनिया की तुलना में सर्वाधिक थी। यह वो दौर था कि जब प० नेहरु के नेतृत्व में सार्वजानिक क्षेत्र के भारी उद्योग लगाए जा रहे थे और भारत रोज़गार सृजन के क्षेत्र में भी नए प्रतिमान स्थापित कर रहा था . इस दौर में प्रति व्यक्ति क्रय शक्ति भी बढ़ रही थी . हमारा धन बाँध बनाने में, विद्युत् परियोजनायों के क्रियान्वयन में , परिवहन के नए साधन विकसित करने में , कृषि क्षेत्र में नए अनुसंधानों और उद्योगों की अवस्थापना में तथा इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास में लग रहा था और अगर आज़ादी के तुंरत बाद के कुछ समय को छोड़ दिया जाए तो यह वो दौर था जब साम्प्रदायिक दंगे भी कम हो रहे थे. प० नेहरु के समय में भारत विकास के नए प्रतिमान स्थापित कर रहा था और हमारा पडोसी देश चीन भी तरक्की की राह पर था . यही वो समय था जब सोवियत संघ अमरीका के लिए नयी चुनौती बन रहा था . ऐसे में अमरीका को भविष्य का ख़तरा भारत और रूस से ही था. उस समय हमारे खिलाफ जो षड़यंत्र अमरीका ने प्रारंभ किये वो बदस्तूर आज भी जारी हैं. १९६२ में चीन से हमारे ऊपर हमला कराया गया और ज़ाहिर है कि नया नया आजाद हुया एक गरीब मुल्क इस अप्रत्याशित हमले का मुकाबला नहीं कर साकता था. यह हमारी रण नीति में बदलाव का एक महत्वपूर्ण बिंदु साबित हुया/. जो धन हमारी विकास परियोजनायों में लग रहा था वो अब हथियारों में लगना प्रारंभ हो गया और हम विकास की दौड़ में पिछड़ने लग गए.

थोडा स्थिति सुधरना शुरू हुयी तो=अब इसी देश में इंदिरा गांधी ने पोखरण परीक्षण कराकर देश की ताक़त सारी दुनिया को दिखलाई थी । यह वो समय था जब हम अमरीका की आँख की सबसे बड़ी किरकिरी बन गए थे. यह सारी बातें हम इसलिए दोहरा रहे हैं क्योंकि आज़ादी के साथ साल के बाद मनमोहन सरकार और उसके अमरीकी दुमछल्ले यह प्रचार कर रहे हैं कि ऊर्जा जरूरते पूरी करने के मामले में देश में भारी अकाल है और बिना अमरीका की दुम बने हम यह जरूरतें पूरी नहीं कर सकते. जब हमने पोखरण -एक किया था तब न तो हमने कहीं से तकनीक चुराई थी और न किसी ने हमें यह तकनीक मुहैया कराई थी . उस समय हमने यूरेनियम पाने के लिए अमरीका के सामने हाथ नहीं फैलाए थे ? फिर जो काम इंदिरा गांधी कर सकती थीं वो हौसला उनके वंशज क्यों नहीं दिखा पा रहे हैं?



पोखरण -१ के बाद अमरीका ने हर संभव कोशिश हमें तोड़ने और और देश में अशांति फैलाने के लिए की थी . जब केंद्र में भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार बनी तो यह अमरीका समर्थक सरकार थी और अमरीका यह बात सरकार तक पहुचाने में सफल रहा कि पाकिस्तान परमाणु बम बना चूका है और परीक्षण करने वाला है.बस हमारे नादाँ हुक्मरानों ने पोखरण -२ कर लिया और अमरीका ने हमारे ऊपर पाबंदियां आयद कर दीं . यहाँ जो बात चिन्हित किये जाने योग्य है वो यह है कि इन प्रतिबंधों के बाद भी हमारी आर्थिक विकास दर कम नहीं हुयी और न मुद्रा स्फीति की दर इतनी तेजी से बड़ी जितनी तेजी से हमारे अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री के सफल [ ?] नेतृत्व में बड़ी. कारण साफ़ था कि उस समय अमरीका की दादागिरी के खिलाफ पूरा देश एकजुट था और यह आम सहमती बन गयी थी कि भूखे नंगे रह लेंगे लेकिन अमरीका की दादागिरी नहीं सहेंगे. वो लोग जो अमरीका के समर्थक थे या अमरीकी एजेंट थे , भी देशवासियों की इस भावना के आगे नतमस्तक थे. आज जब करार का मसला आया तो हम राष्ट्रीय एकता के सवाल पर बाँट गए . सरकार ने अमरीका के सामने हाथ फैलाया और घुटने टेके परन्तु मनमोहन, मुलायम और लालू के विश्वासघात पर भी हमारी राष्ट्रीय भावना उस प्रकार नहीं जागी जिस प्रकार पोखरण -२ के बाद जागी थी. बल्कि हमारा फूहड़ और संस्कृतिविहीन नव धनाड्य वर्ग देश बेचने के इस पुनीत कार्य में मनमोहन-मुलायम का सहयोगी था. इस घटना का जो फौरी नतीजा था वो हमारे सामने है कि महंगाई अपने चरम पर है , संसद " कैश फॉर वोट " कांड से शर्मसार हुयी है और देश की राजनीति पर दलालों और घटिया किस्म के जेब्क़तरे टायप छिछोरे राजनीतिज्ञों का वर्चस्व कायम हुया जिसके चलते देश बदनाम हुआ. सन १९४७ के बाद यह पहला अवसर है कि देश का प्रधानमंत्री इतना निरीह और बेबस है कि उसे दलील देनी पद रही है कि मानसून अच्छा आयेगा तो महंगाई रुकेगी. क्या इसका जवाब यह दिया जा सकता है कि फिर सत्र्कार भी मानसून ही चलाये साओउथ ब्लोक में मनमोहन का क्या काम है? पोखरण-२ पर हमारी राष्ट्रीयता जागृत हुयी चूंकि तब हमारे सामने दुश्मन के रूप में पाकिस्तान प्रोजेक्ट किया गया था.लेकिन परमाणु करार पर हमारी राष्ट्रीयता जागृत नहीं हुयी चूंकि हमारे सामने पाकिस्तान नहीं अमरीका था? क्या हमारी राष्ट्रीय भावना जागृत करने के लिए एक पाकिस्तान का होना जरूरी है? पाकिस्तान के बाद हमारी राष्ट्रीयता का पैमाना चीन तय करता है. पोखरण-२ के बाद भाजपा गठबंधन सरकार ने अमरीका को सफाई दी थी कि यह परीक्षण तो उसने चीन के कारण किया था और जब करार पर बहस हुयी तो सपा शासनकाल में नॉएडा और गाजिअबाद में ज़मीनों पर कब्जे करने वाले और कालाबाजारी करने वाले और अफसरों की ट्रांसफर पोस्टिंग में अवैध धन कमाने वाले भी चीन को कोस कोस कर अपनी देश्द्रोहिता को देशभक्ति साबित करने में लगे हुए थे. ६ दशक पुराने आजाद भारत को अमरीका एशिया में भारत को अपना सैन्य अनुचर बनाना चाहता है और इसके लिए अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री उदारीकरण और भूमंडलीकरण के साथ साथ परमाणु करार करके ज़मीनी आधार तैयार कर रहे हैं./ रिज़र्व बैंक मार्का अर्थशास्त्र हमारी कृषि, आधारभूत उद्योग और देशी वित्तीय प्रबंधन को नष्ट कर रहा है. ताकि जब हमारा वितीय संतुलन बिगडे और हमारे देसी य्द्योग धंधे चौपट हो तो हमारा गेंहू १०० रूपये किलो बिके तो अमरीकन बर्गर ५ रुपये का बिके तब अमरीका को हमारे देश से अफगानिस्तान , इरान और पाकिस्तान के खिलाफ मोर्चों पर सैनिक मिल सकेंगे... आज काश्मीर जल रहा है. वो समय भी इस देश ने देखा है जब काश्मीर के राजा हरी सिंह ने काश्मीर को स्वतंत्र करने का निर्णय ले लिया था और पाकिस्तान कश्मीर में आ पहुंचा था. प० नेहरु प्रधानमंत्री थे. सुना है कि प० जी काश्मीर जा पहुंचे तो राजा हरी सिंह ने प० जी का रास्ता रुकवाया पर प० जी जा धमके और उनके बर्छियां लग गयी थी. उस समय कश्मीरी अवाम पाकिस्तानी घुसपैठियों को पकड़ पकड़ कर हिन्दुस्तानी फौजों को सौंपते थे. आज अगर आज़ादी ke एकसाथ साल बाद वही कश्मीरी अवाम "मुज़फ्फराबाद कूच" के लिए सड़कों पर निकल रहा है तो आप केवल पाकिस्तान को दोष देकर अपनी जिम्मेदारी से मुंह नहीं मोड़ सकते हैं. अगर कोई बेटा अपने बाप से नाराज़ hai to कुछ न कुछ कुसूर बाप का भी होगा? हमारा देशभक्त और सफल प्रधानमंत्री करार पर मार्केटिंग करने तो बुश से मिलने का वक़्त निकाल्सकता है लेकिन् जलते हुए कश्मीर को देखने के लिए प्रधानमंत्री के पास वक़्त नहीं है? आजाद मुल्क के इतिहास में यह पहला मौका है जब देश की नैय्या किसी काबिल राजनीतिग्य के हाथ न होकर एक मुनीम के हाथ में है. पहले प्रधानमंत्री राजनेता बनते थे अब चाटुकार बनते हैं. क्या ६ दशक की आज़ादी ka मतलब यही hai?


1 टिप्पणी:

Unknown ने कहा…

aapki baat se hum ahsamath hain .
aapne sari cheje spasth nahi ki hain aur sachiyan se parda kiya hai kuch jagah.
Yeh baate kisi party ke karyakarta ki jagah ek desh ne nagrik hone ke naate kahte toh achha lagta .

jai hind