आजमगढ़ और आतंक्गढ़ --आतंकवाद लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
आजमगढ़ और आतंक्गढ़ --आतंकवाद लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

गुरुवार, 6 नवंबर 2008

मीडिया और अमर के बीच बाटला


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी
मीडिया और अमर के बीच बाटला
ऐसी रिपोर्टिंग से बचना चाहिए जो दिलों को तोडती हो, क्योंकि जब दिल टूटते हैं तो देश टूटता है और निस्संदेह देश की कीमत हमारी नौकरी, हमारे व्यवसाय, हमारे राजनीतिक हित और टीआरपी से बहुत ज्यादा है
दिल्ली के जामियानगर में सपा नेता अमर सिंह और तृणमूल कांग्रेस नेता ममता बनर्जी की एक सभा के तत्काल बाद अमर सिंह की बाइट लेने का प्रयास कर रहे पत्रकारों के ऊपर उग्र लोगों की एक भीड ने हमला कर दिया। यह हमला अमर सिंह के उस भाषण का त्वरित फल था, जिसमें उन्होंने बाटला हाउस एनकाउंटर को फर्जी बताते हुए जामियानगर में उत्तेजना फैलाने का प्रयास किया था। अमर सिंह बडबोले और बिना जनाधार के नेता हैं। अगर सोली सोराबजी के शब्दों को उधार ले लिया जाए तो वे फर्जी नेता ह। फिलहाल, सत्यव्रत चतुर्वेदी की सलाह मानने की जरूरत नहीं है। यहां अमर सिंह से एक सवाल तो पूछा जा सकता है कि वे एनकाउंटर को फर्जी बताने में इतनी देर कैसे कर गए? जो तर्क वे आज दे रहे हैं उसे तो एनकाउंटर के अगले दिन भी दिया जा सकता था। लेकिन पहली बार एनकाउंटर पर उन्होंने सवाल तब उठाया जब गृहमंत्री शिवराज पाटिल से उनका वाकयुद्ध हो गया और सपा ने यह महसूस कर लिया कि कांग्रेस उसे भाव नहीं दे रही है। और अगर अमर सिंह मुठभेड की न्यायिक जच के मसले पर राजनीतिक रोटियां नहीं सेंक रहे थे तो उसके लिए उन्हें जामियानगर नहीं, बल्कि ७-रेसकोर्स जाना चाहिए था। सनद रहे कि मायावती के ऊल-जलूल बयान के जवाब में सपा के उत्तर प्रदेश के कार्यवाहक अध्यक्ष और मुलायम सिंह के अनुज शिवपाल सिंह यादव का जो प्रथम बयान आया, उसमें उन्होंने बाटला हाउस एनकाउंटर पर कोई सवाल नहीं उठाया था, बल्कि अपने दल का बचाव करते हुए आजमगढ में आतंकवादियों की उपस्थिति के लिए बसपा सांसद अकबर अहमद डंपी के उस बयान को जिम्मेदार ठहराया था, जिसमें डंपी ने कहा था कि एसटीएफ वाले आएं तो उन्हें मारना।सपा के बडबोले महासचिव यह कहने की हिम्मत क्यों नहीं जुटा पा रहे कि अगर एनकाउंटर फर्जी है, तो हत्यारे पुलिसकर्मियों को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का आशीर्वाद प्राप्त है। अमर सिंह शब्दों के तीर जान-बूझकर निशाने पर नहीं चला रहे हैं। जान-बूझकर वे निशाने से बचाकर तीर चला रहे हैं, ताकि परमाणु करार पर कांग्रेस का समर्थन करके उनके दल की इजराइल और अमरीकापरस्त जो छवि बन गई है, उससे किसी प्रकार छुटकारा भी मिल जाए और प्रधानमंत्री का वरदहस्त भी हासिल रहे। अगर एनकाउंटर फर्जी है, जैसा कि अमर सिंह का मानना है और मुझे भी संदेह है, तो क्या अमर सिंह इस बात का जवाब दे पाएंगे कि जिस दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ने एनकाउंटर को अंजाम दिया वह दिल्ली पुलिस मनमोहन सिंह के अधीन है और मनमोहन सिंह की कुर्सी आज अमर सिंह और मुलायम सिंह के कारण सुरक्षित है। तो क्या इस कथित फर्जी एनकाउंटर (अगर ऐसा है) के लिए अकेले वाई. एस. डडवाल और शिवराज पाटिल ही जिम्मेदार हैं? अमर सिंह, मुलायम सिंह या मनमोहन सिंह की कोई जिम्मेदारी नहीं है? अगर वाकई में अमर सिंह को इस एनकाउंटर पर कोई गुस्सा है तो उन्हें तत्काल सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह से अपने सारे रिश्ते समाप्त कर लेने चाहिए। अन्यथा, उनके मगरमच्छी आंसुओं पर आजमगढ के लोग एक शेर में अपने दर्द को बयां करेंगे - ’हमारे कत्ल की साजिश में तुम हिस्सा न लो वरना/ जमाना अपने दौर का तुम्हें कातिल बताएगा।‘रही बात जामिया के एक गुट द्वारा पत्रकारों पर हमला, तो यह घटना निंदनीय है। लेकिन क्या मीडिया और खासतौर पर इलेक्ट्राॅनिक मीडिया ने इस प्रकरण पर अपना काम ठीक ढंग से अंजाम दिया है? मीडिया लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है। वह जनता का, आम आदमी का प्रतिनिधि है। क्या मीडिया ने आजमगढ की छवि बिगाडने में पुलिस के प्रवक्ता की भूमिका नहीं निभाई? क्या आजमगढ के सारे मुसलमान आतंकवादी और दाऊद इब्राहिम के चेले हैं? माफ करें, जिस दिन आजमगढ के सारे मुसलमान आतंकवादी हो गए, उस दिन मुल्क में हाहाकार मच जाएगा। लगभग पांच लाख की आबादी आजमगढ में मुसलमानों की है। एक या दो दर्जन आतंकवादियों ने सारे देश की सांसें रोक दी थीं। तसव्वुर कीजिए कि हमारे मीडिया के साथी ५ लाख लोगों को अगर आतंकवादी बना देंगे तो इस मुल्क का क्या हाल होगा? अभी कानपुर में एक विस्फोट हुआ। विस्फोट के तुरंत बाद हमारे टीवी चैनल चिल्लाने लगे कि आतंकवादियों ने नया मॉड्यूल अपना लिया है। अब सिरिंज का प्रयोग बम बनाने में होने लगा है। एक टीवी चैनल ने ज्ञान बिखेरा कि सिरिंज साइकिल के अगले टायर में रखा गया था। लेकिन शाम तक उत्तर प्रदेश के अपर पुलिस महानिदेशक (कानून व्यवस्था) का बयान आ गया कि यह आतंकवादी घटना नहीं थी और इसमें सुतली बम का प्रयोग किया गया था, जो अमूमन कानपुर के अपराधी करते हैं। बाद में मालूम पडा कि यह देसी बम, जो वस्तुतः भारी पटाखे थे, एक हिंदू दुकानदार की दुकान पर बिक्री के लिए दो मुस्लिम युवक देने आए थे और साइकिल खडी करके पानी पीने चले गए। इतने में साइकिल गिर गई और विस्फोट हो गया। इस तथ्य की जानकारी समाचार पत्रों में तो आई, लेकिन हमारे न्यूज चैनल ने न तो यह जानकारी दी और न अपनी करतूत पर माफी के दो शब्द कहे।हमारे अधिकांश मीडिया के साथी ’जेहादी तत्त्व‘ शब्द का प्रयोग बार-बार कर रहे हैं। लेकिन इनमें से कितने लोग ’जेहाद‘ की अवधारणा से परिचित हैं? बिल्कुल नहीं, और वे तथाकथित बडे पत्रकार तो बिल्कुल नहीं, जो एनडीए सरकार के कार्यकाल में प्रसार भारती को एक करोड रुपये सालाना की चपत लगा रहे थे। उन्हें आडवाणी ने बता दिया ’जेहादी तत्त्व‘ और वे गाने लगे जेहाद-जेहाद।जेहाद का फतवा तो हर मुसलमान भी नहीं दे सकता है तो गैर मुसलमान कैसे दे सकता है? और आडवाणी को जेहाद का फतवा देने का अधिकार बिल्कुल नहीं है।अभी उत्तर प्रदेश में एक घटना हुई। एक दंपती बाइक पर सवार होकर पटाखों से भरा झोला लेकर जा रहा था। रास्ते में रेलवे फाटक पर बाइक टकरा गई और दोनों पति-पत्नी के परखच्चे उड गए। इत्तेफाक से मरने वाले दंपती गुप्ता थे। अगर कहीं बदनसीबी से यह घटना दाढी-टोपी वाले टखनों से ऊंचे पायचे का पाजामा पहनने वाले किसी शख्स के साथ हुई होती, तो तत्काल थैले में आरडीएक्स ढूंढा जाने लगता और उसके आजमगढ से संफ तलाशे जाते।दाऊद इब्राहिम आतंकवादी माफिया डॉन है, ठीक है, लेकिन दाऊद का एक दायां हाथ रोमेश शर्मा भी तो है। क्या किसी ने रोमेश शर्मा को भी आतंकवादी कहा? यह दोहरा चरित्र मीडिया के लिए ठीक नहीं, राजनेताओं के लिए तो ठीक है।इस सबके बावजूद जामिया के क्रुद्ध लोगों का पत्रकारों पर हमला कतई जायज नहीं था। इसका कारण है कि फिर तो वही साबित हो जाएगा, जो हमारे भद्रजन साबित करना चाहते हैं। दूसरे, रिपोर्टिंग करने फील्ड में जो पत्रकार जाते हैं वे अपने चैनल या अपने मीडिया समूह की नीति तय करने की स्थिति में नहीं होते हैं। उनके कुछ निजी विचार हो सकते हैं, कोई राजनीतिक विचारधारा हो सकती है, जो रिपोर्टिंग में भी झलक सकती है। लेकिन वे वही करते हैं, जो प्रोड्यूसर कहता है और प्रोड्यूसर वही कहता है जो चैनल का मालिक हुक्म देता है। मालिक के अपने व्यापारिक व राजनीतिक हित हैं। उनमें से कई ठेकेदार और बिल्डर ह और कुछ राजनेता। इसलिए इनमें से कुछ वह करते हैं जो सरकार कहती है, कुछ वह करते हैं जो भाजपा कहती है और कुछ वह करते हैं जो अमर सिंह कहते हैं। लेकिन वे ऐसा कुछ भी नहीं करते, जो आम आदमी कहता और चाहता है, जब तक कि उससे टीआरपी न बढे। इसलिए मीडिया (इलेक्ट्राॅनिक) की हरकतों से क्षुब्ध लोगों को इन निरीह रिपोर्टरों पर गुस्सा नहीं उतारना चाहिए। अमर सिंह को भी चाहिए कि वे इन रिपोर्टरों को पिटवाने के स्थान पर उन चैनल मालिकों से संयम बरतने को कहें, जो उनके अभिन्न मित्र भी हैं और उत्तर प्रदेश में सपा शासनकाल में जिनमें से कई उफत भी हुए हैं।ऐसे नाजुक समय में हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इन आतंकी घटनाओं में मरने वाले न हिंदू थे और न मुसलमान। वे सिर्फ और सिर्फ एक अदद बेगुनाह हिंदुस्तानी थे, जिन्होंने अपने हिंदुस्तानी होने की कीमत अदा की है।इस समय मीडिया से जुडे हमारे मित्रों की अहम जिम्मेदारी है कि पुलिस की बताई कहानी को अंतिम निष्कर्ष बनाकर न दिखाएं। यह वह पुलिस है जो आरुषि केस में मां-बाप को दुश्चरित्र होने का खिताब दे सकती है और मोदी व उनके हनुमान वंजारा से प्रेरणा लेकर शहीद-ए-आजम सरदार भगत सिंह पर एक दर्जन से अधिक शोधग्रंथ लिखने वाले प्रख्यात साहित्यकार सुधीर विद्यार्थी और मानवाधिकार कार्यकर्ता डॉ. विनायक सेन को माओवादी बताकर प्रताडत कर सकती है। ऐसे नाजुक दौर में टीआरपी की चिंता छोड कर वस्तुस्थिति ही बतानी चाहिए और ऐसी रिपोर्टिंग से बचना चाहिए जो दिलों को तोडती हो, क्योंकि जब दिल टूटते हैं तो देश टूटता है और निस्संदेह देश की कीमत हमारी नौकरी, हमारे व्यवसाय, हमारे राजनीतिक हित और टीआरपी से बहुत ज्यादा है।
--अमलेन्दु उपाध्याय ( लेखक राजनीतिक समीक्षक और स्वतंत्र पत्रकार हैं ]
इस लेख को ख़बर एक्स्प्रेस्स्स डॉट कॉम, हिन्दी मीडिया डॉट इन, दिव्य हिमाचल [समाचारपत्र शिमला ] और डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट [समाचार पत्र लखनऊ ] ने प्रकाशित किया है.

गुरुवार, 25 सितंबर 2008

कैफी का आजमगढ ही क्यों है आतंक का निशाना?


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी
The article written by me on the Azamgarh and terrorism was published www.khabarexpress.com and www.newswing.com . you may visit theese sites to view the original articles.

कैफी का आजमगढ ही क्यों है आतंक का निशाना?





‘मन्दिर मस्जिद गुरुद्वारों में बॉट लिया भगवान को / धरती बॉटी , सागर बॉटा मत बॉटो इन्सान को’ और ‘क्या करेगा प्यार वो राम से क्या करेगा प्यार वो कुरान से / जन्म लेकर गोद में इंसान की कर ना पाया प्यार जो इंसान से’ ‘ जैसे कवितामयी नारे देने वाले हिन्दुस्तानी तहजीब के अजीम शायर मरहूम कैफी आजमी और‘‘वोल्गा से गंगा’ जैसी कालजयी कृति लिखकर हिन्दुस्तानी सभ्यता और संस्कृति को एक नई सोच देने वाले महापण्डित राहुल सॉकृत्यायन की सरजमीन अब बम पैदा कर रही है।

दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल के एक एन्काउन्टर में मारे गये और गिरफतार किये गये तथाकथित आतंकवादियों के कारण आजमगढ अब दुनिया के नक्शे पर दहशत के पर्याय के रुप में उभर कर आया है। जैसा कि दिल्ली पुलिस और गुजरात पुलिस का दावा है ( जो गलत भी हो सकता है ) कि दिल्ली अहमदाबाद और वाराणसी समेत हिन्दुस्तान के विभिन शहरो में हुए सिलसिलेवार बम विस्फोटों के मुख्य साजिशकर्ता और कर्ता-धर्ता यही तालीमयाफता नौजवान थे। हालॉकि पुलिस द्वारा गढी गई कहानी में इतने ज्यादा उलझे हुए पेंच हैं कि किसी विवेकशील प्राणी को इस कहानी पर भरोसा करने में अभी काफी वक्त लगेगा।

जो पहला सवाल जेहन में कौंधता है वो इस पूरे शूट आउट पर सवालिया निशान लगाने के लिये पर्याप्त है। दिल्ली पुलिस का दावा है कि उसे मुखबिरों से ही सूचना मिली थी कि बटला हाउस में आतंकवादी रह रहे हैं। अगर पुलिस का मुखबिर तन्त्र इतना सजग और सटीक था तो मुखबिर यह सूचना देने में नाकाम क्यो रहा कि दिल्ली में बम फटने वाले हैं और वो किन स्थानों पर फटेंगे ? दूसरा और अहम सवाल है कि गुब्बारे बेचने वाले जिस बच्च्ेा को चश्मदीद गवाह बताया जा रहा है उसे कई दिनों तक कहॉ छुपाकर रखा गया और क्यो ? तीसरा अहम सवाल यह है कि क्या एन्काउन्टर में मरने वाले और गिरफतार किये गये तथाकथित आतंकवादियों के चेहरे पुलिस द्वारा जारी किये गये स्केच से मिलते हैं ? और चौथा अहम सवाल कि क्या मृतक आतंकियों और गिरफतार आतंकियों की शिनाख्त परेड चश्मदीद गवाह से कराई गई ? अन्तिम और पॉचवा सवाल कि अब तो कहीं बम नहीं फटेंगे ? चकि पुलिस का दावा है कि उसने मास्टरमाइण्ड आतंकियों का पर्दाफाश कर दिया है। जब तक इन सवालों के जवाब दिल्ली पुलिस के पास नहीं होते तब तक उसकी शूट आउट कहानी अगर सही है तो सही होते हुए भी सन्देह के घेरे में रहेगी।

याद होगा कि जब अहमदाबाद बम विस्फोट काण्ड के अभियुक्त के रुप में अबू बशर पकडा गया था तब भी दावा किया गया था कि सिमी और इण्डियन मुजाहिदीन का मास्टरमाइण्ड पकडा गया है । लेकिन इस मास्टरमाइण्ड के गुजरात पुलिस की सेवा में होने के बाद भी दिल्ली में धमाके हो गये। इसका क्या मतलब निकाला जाये ? क्या अबू बशर इन धमाकों में शामिल नहीं था ? और अगर धमाकों का मुख्य कमाण्डर बशर ही था तो गुजरात पुलिस दो महीने तक उसके साथ क्या करती रही ? या फिर दिल्ली की पुलिस लापरवाह साबित हुई जिसने गुजरात पुलिस की सूचना पर कोई ध्यान नहीं दिया ? इन सारे सवालों के पीछे जो उत्तर निकल कर आयेगा वो या तो इन तथाकथित आतंकवादियों को बेगुनाह साबित करेगा अन्यथा गुजरात पुलिस को नाकारा और दिल्ली पुलिस को लापरवाह। बहरहाल यह सहज प्रश्न दिल्ली और गुजरात दोनों की पुलिस को परेशान करते रहेंगे।

अगर दिल्ली पुलिस का यह दावा सही मान लिया जाये कि इन विस्फोटों के पीछे इन आजमगढवासी नौजवानों का ही हाथ था ( ऐसा यकीन ना करने के अलावा अभी चारा ही क्या है?) तो हमें मौजूदा आजमगढ के आर्थिक और सामाजिक माहौल को समझना पडेगा। वर्ष २००२ के विधानसभा चुनावों के दौरान मुझे आजमगढ की फूलपुर और सरायमीर विधानसभा क्षेत्रों का दौरा करने का अवसर मिला। मैं यह देखकर चौंक गया कि वहॉ पजेरो, सफारी, क्वालिस जैसी लग्जरी गाडियॉ बहुत बडी संख्या में नजर आ रही थीं। इन गाडियों पर नम्बर एम० एच० सीरीज के थे। एक बारगी लगा कि संभवतः किसी प्रत्याशी ने इन गाडियों को किराये पर लिया है। लेकिन स्थानीय लोगों से तहकीकात करने पर मालूम हुआ कि यह गाडिया स्थानीय लोगों की हैं और ९० फीसदी मुसलमानों की हैं।

कारण बहुत साफ था कि सरायमीर इलाके के अधिकॉश परिवारों के लोग मुम्बई और महाराष्ट्र के विभिन्न शहरो में यूपी के भैये बन कर बरसों पहले गये थे और अपनी हेकडी और लडाकू प्रवृत्ति के कारण मुम्बई की अर्थव्यवस्था पर हावी हो गये। आजमगढ में मुझे कई मदरसे देखने को मिले जिनमें एक सरकारी इन्टर कालेज से ज्यादा छात्र शिक्षा प्राप्त कर रहे थे । मालूम हुआ कि ये सारे मदरसे इन्हीं भैयों के आर्थिक सहयोग से चलते हैं।

इसी तरह २००७ के विधान सभा चुनाव में मैं गोरखपुर से आजमगढ के रास्ते से गुजरा तो एक गॉवनुमा कस्बे में भारतीय स्टेट बैंक की विदेशी मुद्रा विनिमय सुविधा प्रदत्त शाखा देखकर आश्चर्य हुआ। मालूम पडा कि उस गॉव व आस पास के गॉवों से बडी तादात में लोग दुबई और खाडी देशों में नौकरी करते हैं और वहॉ से घर पर रियाल और दीनार भेजते हैं। इस समृद्धि का अन्दाजा उस गॉव में संगमरमर के फर्श वाले घर और चमचमाती हुई मस्जिदें देखकर हुआ।

आजमगढ के लोगों की यह समृद्धि ही उनकी दुश्मन बन बैठी। महाराष्ट्र और गुजरात के लोगों को यह पुरबिये भैये अपने दुश्मन नजर आने लगे और यह व्यावसायिक प्रतिद्वन्दिता शनैः शनैः साम्प्रदायिक तनाव में बदल गई। आजमगढ में जो समृद्धि आई उसके परिणामस्वरुप अब ऊॅचे पायचे का पाजामा पहनने वाले मौलवियों के घर में इन्जीनियर, डॉक्टर, मैनेजर और कम्प्यूटर प्रोफेशनल्स की एक नई तालीमयाफता पीढी तैयार होने लगी।

यह उच्च शिक्षा इन आर्थिक सम्पन्न घरों के लिये नासूर बन जायेगी इसका अन्दाजा लगाना कठिन था। यह उच्च शिक्षित कम उम्र नौजवानों का तबका अलगाववादियों के लिये भी सॉफट टारगेट था और उनके आर्थिक प्रतिद्वन्दियों के लिये भी। गौर तलब यह है कि जिन भी नौजवानों पर इल्जाम लगे हैं उनकी उम्र बमुश्किल १७ बरस से लेकर २५ बरस के बीच है। यदि गौर किया जाये तो ६ दिसम्बर १९९२ को जब बाबरी मस्जिद को कुछ लाख गुण्डों ने गिराया और उसके बाद मुम्बई, सूरत अहमदाबाद की सडकों पर जिस तरीके से हैवानियत और वहशीपन का जो खेल खेला गया उन घटनाओं के ये बालमन मूक साक्षी थे। सडकों पर जलते टायरों में जिन्दा जलाये जाते लोग, कॉच की बोतलों पर नंगी नचाई जाती औरतों और बलात्कार की वीडियो रिकॉर्डिंग की घटनाऍ इन दिलों में बरसों बरस सुलगती रहीं।

१९८६ में लखनऊ में सम्पन्न विज्ञान कॉग्रेस में यह तथ्य रेखांकित किया गया था कि ४ से ५ साल का बच्चा धर्म से बेखबर होता है और ५ से ८ साल तक का बच्चा धर्म को समझने लगता है और किशोरावस्था तक आते आते वो धर्म के प्रति कट्टर हो जाता है। ६ दिसम्बर १९९२ को माओं के कलेजों से चिफ हुए यह मासूम चेहरे इस कदर बहशी और रक्तपिपासु हो जायेंगे, इस बात का अन्दाजा ना तो बाबरी मस्जिद गिराने वाले गुण्डों को रहा होगा और ना मुम्बई सूरत अहमदाबाद की सडकों पर बलात्कार और हत्याऍ करते कट्टर शूरवीरों को।

विज्ञान का नियम है कि हर कि्रया की प्रतिकि्रया होती है। लेकिन यह प्रतिक्रिया इतनी वीभत्स और बहशियाना होगी इसका अन्दाजा लगाना कठिन था। जो समझदार और सच्चे हिन्दुस्तानी हैं उनकी नजर में न कि्रया सही थी और ना प्रतिक्रिया को जायज ठहराया जा सकता है।

यह आग अभी ठण्डी भी ना होने पाई थी कि इसके ऊपर सियासी रोटियॉ सेंकने का काम प्रारम्भ हो गया है। शुरुआत हुई उ०प्र० की मुख्यमन्त्री मायावती के ऊलजलूल और बेहद बेहूदा बयान से। सुश्री मायावती को हिन्दुस्तान की हर बीमारी का वायरस मुलायम सिंह ही दिखाई देते हैं। परमाणु करार के मसले पर मुसलमानों की पहले से नाराजगी झेल रहे मुलायम सिंह को एक बार और घेरने का इससे बेहतर और सुनहरा मौका भला मायावती को कहॉ मिलता?

यह शूट आउट समाजवादी पार्टी के लिये भी गले की फॉस बन गया है। एक तो सपा के एक नेता के पुत्र का नाम इस काण्ड में आया है। दूसरे कॉग्रेस के साथ सपा का हनीमून अभी शुरु भी नहीं हो पाया था कि उसे नजर लग गई है। सपा की दिक्कत यह है कि परमाणु करार पर कॉग्रेस के पाले में जाकर उसने पहले ही मुस्लिम मतदाताओं को अपने खिलाफ कर लिया है और रही सही कसर इस शूट आउट ने पूरी कर दी है। आजमगढी मुसलमानों के दिल में यह फॉस गढ गई है कि मुलायम सिंह शिवराज पाटिल और डडवाल के सहयोगी हैं। सपा की समस्या यह है कि अगर वो इस शूट आउट के विरोध में उतरती है तो उसका मनमोहन सिंह से रिश्ता खराब हो जायेगा, जो वो कतई नहीं चाहती। चकि तब उसकी नम्बर एक दुश्मन मायावती सपा नेताओं को सताने लगेंगी।

उधर सपा यह चाहती थी कि आजमगढ के मुसलमानों को सबक सिखाये। चकि हाल ही के लोकसभा उपचुनाव में वहॉ मुसलमानों ने बसपा प्रत्याशी अकबर अहमद डम्पी को वोट देकर जिता दिया था जिसके चलते एक समय म जिले की सभी विधानसभाई सीटें जीतने वाली सपा के प्रत्याशी और पूर्वान्चल में ’’ मिनी मुलायम ‘‘ के रुप में मशहूर बलराम सिंह यादव बुरी तरह हारे । अब सपा नेतृत्व अजब -गजब द्वन्द में है कि आजमगढियों को सबक सिखाये कि अपने समीकरण ठीक करे।

मौजूदा हालात में अगर यह शूट आउट झूठा है, जैसा कि अधिकॉश आजमी भाइयों का मानना है तो यह बेहद चिन्ता जनक है चकि तब हमारी पुलिस अपनी नाकामी छिपाने के लिये देश के होनहार भविष्य को जबर्दस्ती आतंकवाद के रास्ते पर डाल रही है। इसके विपरीत अगर पुलिस का दावा सही है तो यह और भी ज्यादा चिन्ताजनक है। दोनों ही परिस्थितियों में यह कहना समीचीन होगा कि एक भस्मासुर को पैदा किया जा रहा है। एक पुरानी कहावत है कि जो दूसरों के लिये गड्ढा खोदता है एक दिन उसी में गिरता है। पाकिस्तान और अमरीका के साथ हम इस कहावत को चरितार्थ होते देख रहे हैं। जो फिदायीन और मुजाहिदीन पाकिस्तान ने भारत के लिये तैयार किये थे वो आज उसके लिये बवाल-ए-जान बने हुए हैं और साम्यवादी सोवियत संघ के खात्मे के लिये अमरीका द्वारा तैयार किये गये मुल्ला उमर और ओसामा बिन लादेन आज उसी के सिरदर्द साबित हो रहे है। एक शायर के लफजों में बस इतना ही--’’ वक्त हर जुल्म तुम्हारे तुम्हें लौटा देगा / वक्त के पास कहॉ रहम-ओ-करम होता है ?‘‘

--अमलेन्दु उपाध्याय ( लेखक राजनीतिक समीक्षक और स्वतंत्र पत्रकार हैं।)