मीडिया और अमर के बीच बाटला
ऐसी रिपोर्टिंग से बचना चाहिए जो दिलों को तोडती हो, क्योंकि जब दिल टूटते हैं तो देश टूटता है और निस्संदेह देश की कीमत हमारी नौकरी, हमारे व्यवसाय, हमारे राजनीतिक हित और टीआरपी से बहुत ज्यादा है
दिल्ली के जामियानगर में सपा नेता अमर सिंह और तृणमूल कांग्रेस नेता ममता बनर्जी की एक सभा के तत्काल बाद अमर सिंह की बाइट लेने का प्रयास कर रहे पत्रकारों के ऊपर उग्र लोगों की एक भीड ने हमला कर दिया। यह हमला अमर सिंह के उस भाषण का त्वरित फल था, जिसमें उन्होंने बाटला हाउस एनकाउंटर को फर्जी बताते हुए जामियानगर में उत्तेजना फैलाने का प्रयास किया था। अमर सिंह बडबोले और बिना जनाधार के नेता हैं। अगर सोली सोराबजी के शब्दों को उधार ले लिया जाए तो वे फर्जी नेता ह। फिलहाल, सत्यव्रत चतुर्वेदी की सलाह मानने की जरूरत नहीं है। यहां अमर सिंह से एक सवाल तो पूछा जा सकता है कि वे एनकाउंटर को फर्जी बताने में इतनी देर कैसे कर गए? जो तर्क वे आज दे रहे हैं उसे तो एनकाउंटर के अगले दिन भी दिया जा सकता था। लेकिन पहली बार एनकाउंटर पर उन्होंने सवाल तब उठाया जब गृहमंत्री शिवराज पाटिल से उनका वाकयुद्ध हो गया और सपा ने यह महसूस कर लिया कि कांग्रेस उसे भाव नहीं दे रही है। और अगर अमर सिंह मुठभेड की न्यायिक जच के मसले पर राजनीतिक रोटियां नहीं सेंक रहे थे तो उसके लिए उन्हें जामियानगर नहीं, बल्कि ७-रेसकोर्स जाना चाहिए था। सनद रहे कि मायावती के ऊल-जलूल बयान के जवाब में सपा के उत्तर प्रदेश के कार्यवाहक अध्यक्ष और मुलायम सिंह के अनुज शिवपाल सिंह यादव का जो प्रथम बयान आया, उसमें उन्होंने बाटला हाउस एनकाउंटर पर कोई सवाल नहीं उठाया था, बल्कि अपने दल का बचाव करते हुए आजमगढ में आतंकवादियों की उपस्थिति के लिए बसपा सांसद अकबर अहमद डंपी के उस बयान को जिम्मेदार ठहराया था, जिसमें डंपी ने कहा था कि एसटीएफ वाले आएं तो उन्हें मारना।सपा के बडबोले महासचिव यह कहने की हिम्मत क्यों नहीं जुटा पा रहे कि अगर एनकाउंटर फर्जी है, तो हत्यारे पुलिसकर्मियों को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का आशीर्वाद प्राप्त है। अमर सिंह शब्दों के तीर जान-बूझकर निशाने पर नहीं चला रहे हैं। जान-बूझकर वे निशाने से बचाकर तीर चला रहे हैं, ताकि परमाणु करार पर कांग्रेस का समर्थन करके उनके दल की इजराइल और अमरीकापरस्त जो छवि बन गई है, उससे किसी प्रकार छुटकारा भी मिल जाए और प्रधानमंत्री का वरदहस्त भी हासिल रहे। अगर एनकाउंटर फर्जी है, जैसा कि अमर सिंह का मानना है और मुझे भी संदेह है, तो क्या अमर सिंह इस बात का जवाब दे पाएंगे कि जिस दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ने एनकाउंटर को अंजाम दिया वह दिल्ली पुलिस मनमोहन सिंह के अधीन है और मनमोहन सिंह की कुर्सी आज अमर सिंह और मुलायम सिंह के कारण सुरक्षित है। तो क्या इस कथित फर्जी एनकाउंटर (अगर ऐसा है) के लिए अकेले वाई. एस. डडवाल और शिवराज पाटिल ही जिम्मेदार हैं? अमर सिंह, मुलायम सिंह या मनमोहन सिंह की कोई जिम्मेदारी नहीं है? अगर वाकई में अमर सिंह को इस एनकाउंटर पर कोई गुस्सा है तो उन्हें तत्काल सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह से अपने सारे रिश्ते समाप्त कर लेने चाहिए। अन्यथा, उनके मगरमच्छी आंसुओं पर आजमगढ के लोग एक शेर में अपने दर्द को बयां करेंगे - ’हमारे कत्ल की साजिश में तुम हिस्सा न लो वरना/ जमाना अपने दौर का तुम्हें कातिल बताएगा।‘रही बात जामिया के एक गुट द्वारा पत्रकारों पर हमला, तो यह घटना निंदनीय है। लेकिन क्या मीडिया और खासतौर पर इलेक्ट्राॅनिक मीडिया ने इस प्रकरण पर अपना काम ठीक ढंग से अंजाम दिया है? मीडिया लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है। वह जनता का, आम आदमी का प्रतिनिधि है। क्या मीडिया ने आजमगढ की छवि बिगाडने में पुलिस के प्रवक्ता की भूमिका नहीं निभाई? क्या आजमगढ के सारे मुसलमान आतंकवादी और दाऊद इब्राहिम के चेले हैं? माफ करें, जिस दिन आजमगढ के सारे मुसलमान आतंकवादी हो गए, उस दिन मुल्क में हाहाकार मच जाएगा। लगभग पांच लाख की आबादी आजमगढ में मुसलमानों की है। एक या दो दर्जन आतंकवादियों ने सारे देश की सांसें रोक दी थीं। तसव्वुर कीजिए कि हमारे मीडिया के साथी ५ लाख लोगों को अगर आतंकवादी बना देंगे तो इस मुल्क का क्या हाल होगा? अभी कानपुर में एक विस्फोट हुआ। विस्फोट के तुरंत बाद हमारे टीवी चैनल चिल्लाने लगे कि आतंकवादियों ने नया मॉड्यूल अपना लिया है। अब सिरिंज का प्रयोग बम बनाने में होने लगा है। एक टीवी चैनल ने ज्ञान बिखेरा कि सिरिंज साइकिल के अगले टायर में रखा गया था। लेकिन शाम तक उत्तर प्रदेश के अपर पुलिस महानिदेशक (कानून व्यवस्था) का बयान आ गया कि यह आतंकवादी घटना नहीं थी और इसमें सुतली बम का प्रयोग किया गया था, जो अमूमन कानपुर के अपराधी करते हैं। बाद में मालूम पडा कि यह देसी बम, जो वस्तुतः भारी पटाखे थे, एक हिंदू दुकानदार की दुकान पर बिक्री के लिए दो मुस्लिम युवक देने आए थे और साइकिल खडी करके पानी पीने चले गए। इतने में साइकिल गिर गई और विस्फोट हो गया। इस तथ्य की जानकारी समाचार पत्रों में तो आई, लेकिन हमारे न्यूज चैनल ने न तो यह जानकारी दी और न अपनी करतूत पर माफी के दो शब्द कहे।हमारे अधिकांश मीडिया के साथी ’जेहादी तत्त्व‘ शब्द का प्रयोग बार-बार कर रहे हैं। लेकिन इनमें से कितने लोग ’जेहाद‘ की अवधारणा से परिचित हैं? बिल्कुल नहीं, और वे तथाकथित बडे पत्रकार तो बिल्कुल नहीं, जो एनडीए सरकार के कार्यकाल में प्रसार भारती को एक करोड रुपये सालाना की चपत लगा रहे थे। उन्हें आडवाणी ने बता दिया ’जेहादी तत्त्व‘ और वे गाने लगे जेहाद-जेहाद।जेहाद का फतवा तो हर मुसलमान भी नहीं दे सकता है तो गैर मुसलमान कैसे दे सकता है? और आडवाणी को जेहाद का फतवा देने का अधिकार बिल्कुल नहीं है।अभी उत्तर प्रदेश में एक घटना हुई। एक दंपती बाइक पर सवार होकर पटाखों से भरा झोला लेकर जा रहा था। रास्ते में रेलवे फाटक पर बाइक टकरा गई और दोनों पति-पत्नी के परखच्चे उड गए। इत्तेफाक से मरने वाले दंपती गुप्ता थे। अगर कहीं बदनसीबी से यह घटना दाढी-टोपी वाले टखनों से ऊंचे पायचे का पाजामा पहनने वाले किसी शख्स के साथ हुई होती, तो तत्काल थैले में आरडीएक्स ढूंढा जाने लगता और उसके आजमगढ से संफ तलाशे जाते।दाऊद इब्राहिम आतंकवादी माफिया डॉन है, ठीक है, लेकिन दाऊद का एक दायां हाथ रोमेश शर्मा भी तो है। क्या किसी ने रोमेश शर्मा को भी आतंकवादी कहा? यह दोहरा चरित्र मीडिया के लिए ठीक नहीं, राजनेताओं के लिए तो ठीक है।इस सबके बावजूद जामिया के क्रुद्ध लोगों का पत्रकारों पर हमला कतई जायज नहीं था। इसका कारण है कि फिर तो वही साबित हो जाएगा, जो हमारे भद्रजन साबित करना चाहते हैं। दूसरे, रिपोर्टिंग करने फील्ड में जो पत्रकार जाते हैं वे अपने चैनल या अपने मीडिया समूह की नीति तय करने की स्थिति में नहीं होते हैं। उनके कुछ निजी विचार हो सकते हैं, कोई राजनीतिक विचारधारा हो सकती है, जो रिपोर्टिंग में भी झलक सकती है। लेकिन वे वही करते हैं, जो प्रोड्यूसर कहता है और प्रोड्यूसर वही कहता है जो चैनल का मालिक हुक्म देता है। मालिक के अपने व्यापारिक व राजनीतिक हित हैं। उनमें से कई ठेकेदार और बिल्डर ह और कुछ राजनेता। इसलिए इनमें से कुछ वह करते हैं जो सरकार कहती है, कुछ वह करते हैं जो भाजपा कहती है और कुछ वह करते हैं जो अमर सिंह कहते हैं। लेकिन वे ऐसा कुछ भी नहीं करते, जो आम आदमी कहता और चाहता है, जब तक कि उससे टीआरपी न बढे। इसलिए मीडिया (इलेक्ट्राॅनिक) की हरकतों से क्षुब्ध लोगों को इन निरीह रिपोर्टरों पर गुस्सा नहीं उतारना चाहिए। अमर सिंह को भी चाहिए कि वे इन रिपोर्टरों को पिटवाने के स्थान पर उन चैनल मालिकों से संयम बरतने को कहें, जो उनके अभिन्न मित्र भी हैं और उत्तर प्रदेश में सपा शासनकाल में जिनमें से कई उफत भी हुए हैं।ऐसे नाजुक समय में हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इन आतंकी घटनाओं में मरने वाले न हिंदू थे और न मुसलमान। वे सिर्फ और सिर्फ एक अदद बेगुनाह हिंदुस्तानी थे, जिन्होंने अपने हिंदुस्तानी होने की कीमत अदा की है।इस समय मीडिया से जुडे हमारे मित्रों की अहम जिम्मेदारी है कि पुलिस की बताई कहानी को अंतिम निष्कर्ष बनाकर न दिखाएं। यह वह पुलिस है जो आरुषि केस में मां-बाप को दुश्चरित्र होने का खिताब दे सकती है और मोदी व उनके हनुमान वंजारा से प्रेरणा लेकर शहीद-ए-आजम सरदार भगत सिंह पर एक दर्जन से अधिक शोधग्रंथ लिखने वाले प्रख्यात साहित्यकार सुधीर विद्यार्थी और मानवाधिकार कार्यकर्ता डॉ. विनायक सेन को माओवादी बताकर प्रताडत कर सकती है। ऐसे नाजुक दौर में टीआरपी की चिंता छोड कर वस्तुस्थिति ही बतानी चाहिए और ऐसी रिपोर्टिंग से बचना चाहिए जो दिलों को तोडती हो, क्योंकि जब दिल टूटते हैं तो देश टूटता है और निस्संदेह देश की कीमत हमारी नौकरी, हमारे व्यवसाय, हमारे राजनीतिक हित और टीआरपी से बहुत ज्यादा है।
--अमलेन्दु उपाध्याय ( लेखक राजनीतिक समीक्षक और स्वतंत्र पत्रकार हैं ]
इस लेख को ख़बर एक्स्प्रेस्स्स डॉट कॉम, हिन्दी मीडिया डॉट इन, दिव्य हिमाचल [समाचारपत्र शिमला ] और डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट [समाचार पत्र लखनऊ ] ने प्रकाशित किया है.
ऐसी रिपोर्टिंग से बचना चाहिए जो दिलों को तोडती हो, क्योंकि जब दिल टूटते हैं तो देश टूटता है और निस्संदेह देश की कीमत हमारी नौकरी, हमारे व्यवसाय, हमारे राजनीतिक हित और टीआरपी से बहुत ज्यादा है
दिल्ली के जामियानगर में सपा नेता अमर सिंह और तृणमूल कांग्रेस नेता ममता बनर्जी की एक सभा के तत्काल बाद अमर सिंह की बाइट लेने का प्रयास कर रहे पत्रकारों के ऊपर उग्र लोगों की एक भीड ने हमला कर दिया। यह हमला अमर सिंह के उस भाषण का त्वरित फल था, जिसमें उन्होंने बाटला हाउस एनकाउंटर को फर्जी बताते हुए जामियानगर में उत्तेजना फैलाने का प्रयास किया था। अमर सिंह बडबोले और बिना जनाधार के नेता हैं। अगर सोली सोराबजी के शब्दों को उधार ले लिया जाए तो वे फर्जी नेता ह। फिलहाल, सत्यव्रत चतुर्वेदी की सलाह मानने की जरूरत नहीं है। यहां अमर सिंह से एक सवाल तो पूछा जा सकता है कि वे एनकाउंटर को फर्जी बताने में इतनी देर कैसे कर गए? जो तर्क वे आज दे रहे हैं उसे तो एनकाउंटर के अगले दिन भी दिया जा सकता था। लेकिन पहली बार एनकाउंटर पर उन्होंने सवाल तब उठाया जब गृहमंत्री शिवराज पाटिल से उनका वाकयुद्ध हो गया और सपा ने यह महसूस कर लिया कि कांग्रेस उसे भाव नहीं दे रही है। और अगर अमर सिंह मुठभेड की न्यायिक जच के मसले पर राजनीतिक रोटियां नहीं सेंक रहे थे तो उसके लिए उन्हें जामियानगर नहीं, बल्कि ७-रेसकोर्स जाना चाहिए था। सनद रहे कि मायावती के ऊल-जलूल बयान के जवाब में सपा के उत्तर प्रदेश के कार्यवाहक अध्यक्ष और मुलायम सिंह के अनुज शिवपाल सिंह यादव का जो प्रथम बयान आया, उसमें उन्होंने बाटला हाउस एनकाउंटर पर कोई सवाल नहीं उठाया था, बल्कि अपने दल का बचाव करते हुए आजमगढ में आतंकवादियों की उपस्थिति के लिए बसपा सांसद अकबर अहमद डंपी के उस बयान को जिम्मेदार ठहराया था, जिसमें डंपी ने कहा था कि एसटीएफ वाले आएं तो उन्हें मारना।सपा के बडबोले महासचिव यह कहने की हिम्मत क्यों नहीं जुटा पा रहे कि अगर एनकाउंटर फर्जी है, तो हत्यारे पुलिसकर्मियों को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का आशीर्वाद प्राप्त है। अमर सिंह शब्दों के तीर जान-बूझकर निशाने पर नहीं चला रहे हैं। जान-बूझकर वे निशाने से बचाकर तीर चला रहे हैं, ताकि परमाणु करार पर कांग्रेस का समर्थन करके उनके दल की इजराइल और अमरीकापरस्त जो छवि बन गई है, उससे किसी प्रकार छुटकारा भी मिल जाए और प्रधानमंत्री का वरदहस्त भी हासिल रहे। अगर एनकाउंटर फर्जी है, जैसा कि अमर सिंह का मानना है और मुझे भी संदेह है, तो क्या अमर सिंह इस बात का जवाब दे पाएंगे कि जिस दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ने एनकाउंटर को अंजाम दिया वह दिल्ली पुलिस मनमोहन सिंह के अधीन है और मनमोहन सिंह की कुर्सी आज अमर सिंह और मुलायम सिंह के कारण सुरक्षित है। तो क्या इस कथित फर्जी एनकाउंटर (अगर ऐसा है) के लिए अकेले वाई. एस. डडवाल और शिवराज पाटिल ही जिम्मेदार हैं? अमर सिंह, मुलायम सिंह या मनमोहन सिंह की कोई जिम्मेदारी नहीं है? अगर वाकई में अमर सिंह को इस एनकाउंटर पर कोई गुस्सा है तो उन्हें तत्काल सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह से अपने सारे रिश्ते समाप्त कर लेने चाहिए। अन्यथा, उनके मगरमच्छी आंसुओं पर आजमगढ के लोग एक शेर में अपने दर्द को बयां करेंगे - ’हमारे कत्ल की साजिश में तुम हिस्सा न लो वरना/ जमाना अपने दौर का तुम्हें कातिल बताएगा।‘रही बात जामिया के एक गुट द्वारा पत्रकारों पर हमला, तो यह घटना निंदनीय है। लेकिन क्या मीडिया और खासतौर पर इलेक्ट्राॅनिक मीडिया ने इस प्रकरण पर अपना काम ठीक ढंग से अंजाम दिया है? मीडिया लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है। वह जनता का, आम आदमी का प्रतिनिधि है। क्या मीडिया ने आजमगढ की छवि बिगाडने में पुलिस के प्रवक्ता की भूमिका नहीं निभाई? क्या आजमगढ के सारे मुसलमान आतंकवादी और दाऊद इब्राहिम के चेले हैं? माफ करें, जिस दिन आजमगढ के सारे मुसलमान आतंकवादी हो गए, उस दिन मुल्क में हाहाकार मच जाएगा। लगभग पांच लाख की आबादी आजमगढ में मुसलमानों की है। एक या दो दर्जन आतंकवादियों ने सारे देश की सांसें रोक दी थीं। तसव्वुर कीजिए कि हमारे मीडिया के साथी ५ लाख लोगों को अगर आतंकवादी बना देंगे तो इस मुल्क का क्या हाल होगा? अभी कानपुर में एक विस्फोट हुआ। विस्फोट के तुरंत बाद हमारे टीवी चैनल चिल्लाने लगे कि आतंकवादियों ने नया मॉड्यूल अपना लिया है। अब सिरिंज का प्रयोग बम बनाने में होने लगा है। एक टीवी चैनल ने ज्ञान बिखेरा कि सिरिंज साइकिल के अगले टायर में रखा गया था। लेकिन शाम तक उत्तर प्रदेश के अपर पुलिस महानिदेशक (कानून व्यवस्था) का बयान आ गया कि यह आतंकवादी घटना नहीं थी और इसमें सुतली बम का प्रयोग किया गया था, जो अमूमन कानपुर के अपराधी करते हैं। बाद में मालूम पडा कि यह देसी बम, जो वस्तुतः भारी पटाखे थे, एक हिंदू दुकानदार की दुकान पर बिक्री के लिए दो मुस्लिम युवक देने आए थे और साइकिल खडी करके पानी पीने चले गए। इतने में साइकिल गिर गई और विस्फोट हो गया। इस तथ्य की जानकारी समाचार पत्रों में तो आई, लेकिन हमारे न्यूज चैनल ने न तो यह जानकारी दी और न अपनी करतूत पर माफी के दो शब्द कहे।हमारे अधिकांश मीडिया के साथी ’जेहादी तत्त्व‘ शब्द का प्रयोग बार-बार कर रहे हैं। लेकिन इनमें से कितने लोग ’जेहाद‘ की अवधारणा से परिचित हैं? बिल्कुल नहीं, और वे तथाकथित बडे पत्रकार तो बिल्कुल नहीं, जो एनडीए सरकार के कार्यकाल में प्रसार भारती को एक करोड रुपये सालाना की चपत लगा रहे थे। उन्हें आडवाणी ने बता दिया ’जेहादी तत्त्व‘ और वे गाने लगे जेहाद-जेहाद।जेहाद का फतवा तो हर मुसलमान भी नहीं दे सकता है तो गैर मुसलमान कैसे दे सकता है? और आडवाणी को जेहाद का फतवा देने का अधिकार बिल्कुल नहीं है।अभी उत्तर प्रदेश में एक घटना हुई। एक दंपती बाइक पर सवार होकर पटाखों से भरा झोला लेकर जा रहा था। रास्ते में रेलवे फाटक पर बाइक टकरा गई और दोनों पति-पत्नी के परखच्चे उड गए। इत्तेफाक से मरने वाले दंपती गुप्ता थे। अगर कहीं बदनसीबी से यह घटना दाढी-टोपी वाले टखनों से ऊंचे पायचे का पाजामा पहनने वाले किसी शख्स के साथ हुई होती, तो तत्काल थैले में आरडीएक्स ढूंढा जाने लगता और उसके आजमगढ से संफ तलाशे जाते।दाऊद इब्राहिम आतंकवादी माफिया डॉन है, ठीक है, लेकिन दाऊद का एक दायां हाथ रोमेश शर्मा भी तो है। क्या किसी ने रोमेश शर्मा को भी आतंकवादी कहा? यह दोहरा चरित्र मीडिया के लिए ठीक नहीं, राजनेताओं के लिए तो ठीक है।इस सबके बावजूद जामिया के क्रुद्ध लोगों का पत्रकारों पर हमला कतई जायज नहीं था। इसका कारण है कि फिर तो वही साबित हो जाएगा, जो हमारे भद्रजन साबित करना चाहते हैं। दूसरे, रिपोर्टिंग करने फील्ड में जो पत्रकार जाते हैं वे अपने चैनल या अपने मीडिया समूह की नीति तय करने की स्थिति में नहीं होते हैं। उनके कुछ निजी विचार हो सकते हैं, कोई राजनीतिक विचारधारा हो सकती है, जो रिपोर्टिंग में भी झलक सकती है। लेकिन वे वही करते हैं, जो प्रोड्यूसर कहता है और प्रोड्यूसर वही कहता है जो चैनल का मालिक हुक्म देता है। मालिक के अपने व्यापारिक व राजनीतिक हित हैं। उनमें से कई ठेकेदार और बिल्डर ह और कुछ राजनेता। इसलिए इनमें से कुछ वह करते हैं जो सरकार कहती है, कुछ वह करते हैं जो भाजपा कहती है और कुछ वह करते हैं जो अमर सिंह कहते हैं। लेकिन वे ऐसा कुछ भी नहीं करते, जो आम आदमी कहता और चाहता है, जब तक कि उससे टीआरपी न बढे। इसलिए मीडिया (इलेक्ट्राॅनिक) की हरकतों से क्षुब्ध लोगों को इन निरीह रिपोर्टरों पर गुस्सा नहीं उतारना चाहिए। अमर सिंह को भी चाहिए कि वे इन रिपोर्टरों को पिटवाने के स्थान पर उन चैनल मालिकों से संयम बरतने को कहें, जो उनके अभिन्न मित्र भी हैं और उत्तर प्रदेश में सपा शासनकाल में जिनमें से कई उफत भी हुए हैं।ऐसे नाजुक समय में हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इन आतंकी घटनाओं में मरने वाले न हिंदू थे और न मुसलमान। वे सिर्फ और सिर्फ एक अदद बेगुनाह हिंदुस्तानी थे, जिन्होंने अपने हिंदुस्तानी होने की कीमत अदा की है।इस समय मीडिया से जुडे हमारे मित्रों की अहम जिम्मेदारी है कि पुलिस की बताई कहानी को अंतिम निष्कर्ष बनाकर न दिखाएं। यह वह पुलिस है जो आरुषि केस में मां-बाप को दुश्चरित्र होने का खिताब दे सकती है और मोदी व उनके हनुमान वंजारा से प्रेरणा लेकर शहीद-ए-आजम सरदार भगत सिंह पर एक दर्जन से अधिक शोधग्रंथ लिखने वाले प्रख्यात साहित्यकार सुधीर विद्यार्थी और मानवाधिकार कार्यकर्ता डॉ. विनायक सेन को माओवादी बताकर प्रताडत कर सकती है। ऐसे नाजुक दौर में टीआरपी की चिंता छोड कर वस्तुस्थिति ही बतानी चाहिए और ऐसी रिपोर्टिंग से बचना चाहिए जो दिलों को तोडती हो, क्योंकि जब दिल टूटते हैं तो देश टूटता है और निस्संदेह देश की कीमत हमारी नौकरी, हमारे व्यवसाय, हमारे राजनीतिक हित और टीआरपी से बहुत ज्यादा है।
--अमलेन्दु उपाध्याय ( लेखक राजनीतिक समीक्षक और स्वतंत्र पत्रकार हैं ]
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