गुरुवार, 24 जुलाई 2008

मनमोहन ने मत तो जीता है पर विश्वास खोया है

आखिरकार देश के इतिहास में सर्वाधिक इमानदार और अ -सरदार प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने संसद में विश्वासमत हासिल कर ही लिया है । यह दीगर बात है किउनका नाम चौ० चरण सिंह के बाद इतिहास में इस मायनो में दर्ज हो गया है कि वो ऐसेर प्रधानमंत्री हैं जो अपने विश्वासमत पर ही संसद में बहस का उत्तर नही दे पाए। चौधरी साहेब तो संसद तक विश्वासमत हासिल करने नहीं जा पाए थे परन्तु मनमोहन सिंह इस मामले में अनूठे हैं कि वो संसद में विश्वासमत तो जीत गए परन्तु बहस का उत्तर नहीं दे पाए।
पिछले दिनों में देश ने संसद के जो नज़ारे देखे वो आम हिन्दुस्तानी के लिए शर्मसार करने वाले थे । यह नज़ारे सोचने के लिए विवश कर रहे थे कि क्या यह वही संसद है जहाँ कभी पंडित जवाहर लाल नेहरू , डॉक्टर राममनोहर लोहिया , जयप्रकाशनारायण, चंद्रशेखर, इन्द्रजीत गुप्ता जैसे लोग देश की समस्याओं पर बहस किया करते थे? आज उसी संसद के प्रांगन में एक महिला की अध्यक्षता वाले मोर्चे की तरफ़ से खुलेआम बलात्कार , सुहागरात और वेश्याएं इस्तेमाल किए गए। यह सत्ता के गिरते चरित्र का द्योतक है।
सरकार के जीतने की खुशियाँ मनाई जा सकती हैं, और यह सत्ताधारी लोगों का अधिकार भी है, कि भले ही छल और कपट से सरकार बचायी गई लेकिन बच तो गई? अब मनमोहन बुश से किया वायदा पूरा कर सकेंगे । परन्तु इस जीत के पीछे असल कारन न तो कोयियो दलाल है, न यह बलात्कार और सुहागरात का नतीजा है, यह परिणाम है सिर्फ़ हमारे अन्दुरुनी मामलात में अमरीकी दखलंदाजी का.......
विश्वासमत के प्रथम दिन ही जब अमरीकी विदेश उप मंत्री रिचर्ड बौचेर का बयां आया कि अमरीका अल्पमत सरकार से भी समझौता करने को तैयार है उसी क्षण यह तय हो गया था कि सरकार तो बचेगी और उसे भाजपा बचायेगी। ऐसा निष्कर्ष बचकाना नहीं है। भाजपा और कांग्रेस दोनों के तार मजबूती से अमरीका लॉबी से जुड़े हैं और बाउचर का बयां भाजपा के लिए खुली धमकी था । विश्वासमत से एन दी ऐ के ही सांसद क्यों गायब हुए?
दो दिनी बहस से एक बात और साफ़ हो गई कि सपा के बड़बोले महासचिव लंबे समय से प्रयासरत हैं कि लोग उन्हें नेता मान लें। लेकिन लोग उन्हें नेता मानने के लिए तैयार नहीं हैं। उनकी यह पीड़ा बार बार उभर कर आती है। वो नेता बन्ने का प्रयास करते हैं और जिनके लिए काम कर चुके होते हैं वही उन्हें उन पदवियों से नवाजने लगते हैं जिनसे यह महासचिव पीछा छुडाना चाहते हैं। इन महासचिव का बडबोलापन तो चूर चूर हो गया जब बसपा का एक भी सांसद सत्ता के खेमे में नहीं पहुँचा और सपा के ६ सांसद सपा से बगावत कर गए। क्या इसके बाद भी समाजवादी पार्टी सरकार की जीत पर खुशियाँ मनायेगी ?
अलबत्ता अमर सिंह की अतिसक्रियता का सपा और कांग्रेस को खासा नुक्सान हुआ । अगर सरकार की जीत दीअलों का नतीजा नहीं भी थी तब भी देश की जनता यह भरोसा करने को तैयार नहीं है कि मनमोहन सिंह ने इमानदारी से [ जो जुमला बार बार कहा जा रहा कि वो इमानदार हैं ] विश्वासमत हासिल किया है। मनमोहन सिंह भले ही फिलहाल अपनी सरकार बचने में सफल हो गए हों परन्तु लोगों को नार्सिम्हाराओ का विश्वासमत भी याद है जब इन्ही इमानदार प्रधानमंत्री जो उस समय वित्त मंत्री थे के सहयोग से उनहोंने सरकार तो बच्चा ली थी लेकिन ठीक उसी वक्त उ० प्र० से कांग्रेस का सूपड़ा साफ़ हो गया था। और कांग्रेस उस स्थिति में पहुँच गई थी जिस स्थिति में १९७७ में भी नहीं पहुँची थी । १९९३ में कांग्रेस को लगा झटका अभी तक उसकी कमर तोडे हुए है । यह नार्सिन्हाराओ के कर्मों का फल है कि एक राष्ट्रिय पार्टी जिसका इस देश की आजादी की लड़ाई में महत्वपूर्ण योगदान रहा है उसकी नैय्या बचाने का दायित्व घटिया किस्म के दलाल निभा रहे हैं। नार्सिन्हाराओ ने कांग्रेस की जो कब्र खोदी थी उसमें कांग्रेस को दफनाने का काम मनमोहन सिंह पूरा कर चुके हैं।
सोनिया जी ने प्रधानमंत्री बन्ने से इंकार करके त्याग की एक नयी परिभाषा रची थी। लेकिन अगर मनमोहन सिंह २२ जुलाई को से ६ बजे राष्ट्रपति को अपना त्यागपत्र सौंप देते तो उनकी एक छवि निखर कर आती और सरकार के माथे पर लगा होर्सेत्रदिंग का दाग भी धुल जाता .परिणामस्वरूप यह देश सारी दुनिया के सामने शर्मसार होने से बच जाता। सरकार तब ६ महीने चलती अब ८ महीने चलेगी। लेकिन मनमोहन ने देश की इज्ज़त बचने से बेहतर सरकार बचाना समझा ।
सरकार की सफलता पर खुश होने वाले अनजान खतरों की तरफ़ से मुंह फेर रहे हैं। मुझे वो मुलायम सिंह याद हैं [ पता नही कि सोनिया को याद हैं कि नहीं ?] जिन्होंने कहा था कि उन्होंने सोनिया को प्रधानमंत्री बन्ने से इसलिए रोका चूँकि वो देश को विदेशी हाथों में गिरवी रखने से बचाना चाहते थे। बेशक यह लेखक भी उस समय उन लोगों में था जिन्होंने उस समय सपा के उस कदम की मुखालिफत की थी। लेकिन आज मुलायम सिंह का वो जुमला मुझ जैसे एक आम हिन्दुस्तानी को बार बार उद्वेलित कर रहा है कि उस समय शायद मुलायम सही थे? हाँ एक बात निश्चित है कि कि जो सूरत-ऐ-हाल नज़र आ रहे हैं उसमें अगर मनमोहन सिंह भारत के घुर्बचौफ़ साबित हों तो कोई आश्चर्य नही । लेकिन तब इतिहास शायद ऊर्जा जरूरतों से समझौता करने के लिए लोगों को माफ़ भी कर दे लेकिन मुलायम सिंह को तो नहीं ही कर पयेगेया.....
मनमोहन सिंह के सामने असल चुनौतियां तो अब शुरू होंगीं । अभी तक वो यह आरोप लगा सकते थे कि वामपंथी दल मुनाफा कमा रहे सार्वजनिक उपक्रमों को बेचने की राह में रोड़ा बन रहे थे, आर्थिक उधारीकरण में रोडा बन रहे थे। लेकिन अब पूंजीपति घरानों के झगडे , बॉलीवुड की नार्त्किओयों के किस्से भी प्रधानमंत्री को निपटाने होंगे। और सपा प्रमुख मुलायम सिंह को भी तैयार रहना पड़ेगा कि देश में १२.३% के स्टार तक पहुँचती महंगाई और देश में आत्महत्या करते किसानों की दुर्दशा के लिए जिम्मेदारी उनकी भी उतनी ही होगी जितनी मनमोहन सिंह की।
सरकार के सामने अब अजब तरीके का दवाब होगा । सपा अपनी तयशुदा डील के तहत अब मायावती को जेल भिजवाना चाहेगी और अगर मनमोहन इस दवाब के आगे झुकेंगे तो देश यह समझेगा कि मायावती के आरोप सही थे और अगर वो यह नाजायज़ मांग नहीं मानेंगे तो जो तथाकथित दलाल सरकार को हलाल होने से बचाकर हराम कर सकते हैं वो कल सरकार को हलाल भी तो करवा सकते हैं
कुल मिलाकर सबक यह है कि दलाल चाहे सोनागाछी का हो या राजनीती का उसका चरित्र समान होता है और प्रश्न यह कि क्या बलात्कार और सुहागरात और वेश्याएं देश की सर्वोच्च सत्ता का निर्धारण भी करती हैं? सरदार मनमोहन सिंह असरदार तो साबित हुए हैं । उनहोंने केवल विश्वासमत जीता है लेकिन देश की जनता का भरोसा खोया है.....