गुरुवार, 17 सितंबर 2009

लोकतंत्र की हत्या की पटकथाजगनमोहन के बहाने

लोकतंत्र की हत्या की पटकथा जगनमोहन के बहाने

अमलेन्दु उपाध्याय

आंधा्र प्रदेष के मुख्यमंत्री वाईएस राजषेखर रेड्डी की असमय मृत्यु के बाद जिस तरह से उनके पुत्र जगनमोहन रेड्डी को मुख्यमंत्री बनाए जाने की मांग उठी और इसके लिए बाकायदा लॉबिंग की गई उससे कांग्रेस का हाई कमान बहुत चिंतित है। होना भी चाहिए। चिंता कांग्रेस आला कमान को इस बात की है कि अभी तक कांग्रेस में युवराजों को राजतिलक का विषेशाधिकार सिर्फ गांधी-नेहरू खानदान को ही हासिल था। अगर जगनमोहन को आंधा्र की कुर्सी थमा दी गई तब तो राज्यों में राजतिलक की परंपरा चल निकलेगी और ऐसी स्थिति में कांग्रेस को बांधे रखने वाली ताकत गांधी परिवार का रुतबा कम हो जाएगा क्योंकि तब राज्यों के क्षत्रप भी अपने बेटों को सत्ताा सौंपने की मांग करने लगेंगे।वीरप्पा मोइली ने अभी कहा कि सोनिया गांधी आंधा्र प्रदेष के विशय में फैसला लेंगी। याद होगा कि लोकसभा चुनाव के समय भाजपा ने आरोप जगाया था कि मनमोहन सिंह कठपुतली प्रधानमंत्री हैं और सोनिया सुपर प्रधानमंत्री। उस समय कांग्रेस ने इस आरोप को बहुत बुरा माना था। ठीक इसी तरह मध्य प्रदेष में चुनाव के समय जब भाजपा ने सवाल किया कि कांग्रेस का मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार कौन है तब कांग्रेस ने कहा था कि मुख्यमंत्री चुनना विधायकों का अधिकार है और चुनाव बाद नवनिर्वाचित विधायक अपना उम्मीदवार चुनेंगे। अब सवाल यह हो सकता है कि जब मध्य प्रदेष के लिए मुख्यमंत्री चुनना विधायकों ाक विषेशाधिकार है तो आंधा्र प्रदेष के लिए सोनिया का फैसला अंतिम क्यों होगा? और अगर सोनिया ही मुख्यमंत्रियों के भाग्य का फैसला करती हैं तब तो भाजपा का आरोप सही है कि मनमोहन सिंह कठपुतली प्रधाानमंत्री हैं।लेकिन कांग्रेस आलाकमान की चिंताओं से इतर हमारी चिंता इस प्रकरण पर और सवाल को लेकर है। हमारी चिंता यह है कि इस लॉबिंग के बीच आम कार्यकर्ता कहां खड़ा है और क्या अब कार्यकर्ता का रोल किसी राजनीतिक दल में बचा है और अगर बचा है तो वह रोल क्या है। क्या राजनीति अब कुछ परिवाारों का जन्मसिध्द अधिकार है? क्यों कार्यकर्ता आज निचले पदों पर ही काबिज हैं? हर दल और उसके शिखर नेता चुनाव के मौके पर जिस तरह से अपने कार्यकर्ताओं की उपेक्षा करके टिकट बांटने लगे हैं और जगनमोहन प्रकरण के तरीके से नेतृत्व निर्माण के लिए कार्यकर्ताओं को दरकिनार किया जा रहा है क्या यह लोकतंत्र के लिए षुभ समाचार है? जगनमोहन प्रकरण के बाद यह स्वाभाविक प्रश्न पैदा हो रहा है कि राजनैतिक कार्यकर्ता के लिए भारतीय लोकतंत्र में आखिर कोई जगह बची है या नहीं?एक समय था जब पार्टियों के मूल्य और आदर्श हुआ करते थे। दल के नेता और नीतियों को देखकर लोग उससे जुड़ते थे। पार्टी भी किसी आदमी को उसके गुण, स्वभाव और चाल चलन के आधार पर पद दिया करती थी। इसलिए परिवारवाद कम हावी था। यह एक कटु सत्य है कि आज केवल उन वामपंथी दलों में परिवारवाद ने जड़े नहीं जमाई हैं जिन वामपंथी दलों के ऊपर आरोप लगते रहे हैं कि उनका सिध्दान्त तो 'सत्ताा बन्दूक की नाल से निकलती है' रहा है। पहले पार्टियां आंदोलन करती थीं और उसके बाद सदस्यता अभियान चलाती थीं। उस समय कॉलेजों से ऐसे विद्यार्थियों को जो पार्टी में आंदोलनों के अगुवा हुआ करते थे, पार्टियां अपना प्रत्याषी बनाया करती थीं। सभी दल युवा, मजदूर, किसान और विभिन्न तबकों से संबन्धित लोगों के संगठन बनाते थे। वरिष्ठ पदों पर बैठे लोगों के बच्चे दल के आदर्शों, नीतियों और मूल्यों से अगर अपरिचित होते थे तो उन्हें पार्टी में पीछे की सीट मिलती थी। मगर अब लोकतंत्र की परंपरा खत्म हो रही है। जिसका दुष्परिणाम यह हुआ है कि अब पार्टियों के पास मुद्दे नहीं हैं। जनता में जो ज्यादा लोग जागरूक होते थे, पहले जो समाज के लिए कुछ करना चाहते थे, जिनके मन में जोश होता था, जिनका समाज से कुछ सरोकार होता था, और जो मुद्दों को समझना चाहते थे, वही लोग राजनीतिक कार्यकर्ता बनते थे और बाद में नेतृत्व भी संभालते थे। आज पार्टी में शामिल होने वालों का स्वार्थ होता है और पहले कार्यकर्ता को एक ख्याति की आवश्यकता होती थी। अब क्योंकि जातिवाद हावी है तो विद्यार्थी से लेकर आम नागरिक कार्यकर्ता बनने से बचने लगा है। जो नेता जिस समुदाय का होता है वह उसी समुदाय के लोगों को खोजकर कार्यकर्ता के रूप में पार्टी से जोड़ लेता है। अभी तक राजनीतिक कार्यकर्ता की जगह राजनीति में बची हुई थी क्योंकि अभी तक केवल पार्टी के ऊंचे पदों पर ही परिवारवाद हावी था। यह तमाषा है कि जिला और ब्लॉक स्तर पर तो अभी भी छोटे राजनीतिक कार्यकर्ता को ही पदासीन किया जाता है।पहले कार्यकर्ता नेता चुनते थे। मगर अब नेता जो चाहता है वही होता है। इसलिए आम कार्यकर्ता कमजोर हुआ है। इसके अलावा जिसके पास पैसा नहीं है उसे कोई पद नहीं दिया जाता। क्योंकि पहले देहात और गांव में वहां के विकास कार्यो को हल कराने के लिए पार्टियों से जुड़ते थे मगर अब दल वहां के लिए पैसे से कार्यकर्ता खरीद लेते हैं। अब असली राजनीतिक कार्यकर्ता पसोपेश में हैं कि वह क्या करे? ईमानदारों को या तो अब चाटुकारों की तरह पार्टी के बड़े नेताओं की बात मान कर चलना होता है या फिर वह राजनीति छोड़कर घर बैठ जाता है। एक समय में गांव का कार्यकर्ता भी बड़े से बड़े नेता को साफ-साफ मुद्दों और नीतियों पर घेर लिया करते थे। मगर अब स्थिति यह है कि समाजवादी पार्टी परमाणु करार पर यू टर्न लेते हुए रात ही रात में कांग्रेस का समर्थन करने का फैसला ले लेती है और उसके बड़े से बड़े नेताओं को यह मालूम ही नहीं पड़ पाता कि ऐसा फैसला कहां ले लिया गया। यही कारण है कि जब सपा उत्तार प्रदेष में मायावती के खिलाफ आंदोलन का बिगुल बजाती है तो उसे कार्यकर्ता नहीं मिल पाते। आदमी अपने कर्मों से राजनीतिक कार्यकर्ता बनता है। क्योंकि उसे अपने लक्ष्य के बारे में ठीक से पता होता है और उसी दिशा में वह चलना भी चाहता है। उसे हर समय एक अच्छे मंच की की तलाश भी रहती है। तो उसे राजनीति में लाने के लिए लोग आगे आ जाते हैं। ग्रामीण अंचलों में जो गांव का बच्चा समझदार होता था, पढ़ने-लिखने के बाद वह वहां की समस्याओं के लिए कदम उठाता था तो गांव के लोग उसे प्रोत्साहन देते थे। गांव के सहारे ही वह आगे बढ़ने लगता था। जब बड़ी पार्टियों के नेताओं की नजर उस पर पड़ती थी तो उसे पार्टी में शामिल हो जाने के लिए आमंत्रित करते थे। गांव के लोग भी उसे प्रेरित करते थे कि वह उनके लिए कुछ करेगा तो वह बिना किसी हिचक के उसका समर्थन करते थे। यही कारण था िकवह कांग्रेस जहां आज जगनमोहन पैदा हो रहे हैं उसी कांग्रेस में एक बैण्ड मास्टर सीताराम केसरी कांग्रेस अध्यक्ष के पद तक पहुंचा। क्या आज कल्पना की जा सकती है कि कोई सीताराम केसरी कांग्रेस में पैदा होगा?जो लोग देश की तस्वीर बदलने के लिए घर से गुड़ खाकर मीलों पैदल चलते थे वही असली राजनीतिक कार्यकर्ता होते थे। आज भी जो वंचितों, भौतिक साधनों, अवसरों को आम जनता को देने के लिए उसके दिल में दर्द होता है वही राजनीतिक कार्यकर्ता बनता है। आज भी ग्रामीण और विद्यार्थी वर्ग ही सबसे ज्यादा राजनीति में आता है और पहले भी आया करता था। पहले भी वे विधायक बनने के लिए नहीं आते थे और न ही कोई पदाधिकारी बनने के लिए। मगर अब समय बदल गया है अब दूसरी तरह का कार्यकर्ता भी बन रहा है। यह सबसे पहले किसी पद पर इसलिए बैठना चाहता है कि वहां से कुछ अर्जित कर सके। और उसे यह सिखाया है जगनमोहन जैसों ने।आज राजनीति का संदर्भ और उद्देश्य दोनों बदल रहे हैं। इसका लोगों के राजनीतिक निर्माण प्रक्रिया में असर पड़ रहा है। 1990 के उदारीकरण के दौर आर्थिक व सामाजिक अन्यायों के खिलाफ आवाज को उभारना था। इसलिए राजनैतिक कार्यकर्ता बनने की जरूरत होती थी। लोग सामाजिक सरोकारों के लिए समर्पित थे। यह समर्पण दक्षिणपंथी, मध्यमार्गी और वामपंथी सभीं के लिए ही बराबर लागू था। जो लोग इनके महत्व को समझते थे वे ही राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में जन्म लेते थे। पूंजीपति अपने दल की विचारधाराओं को अपनाकर ही राजनीति से जुड़ते थे। मगर 1990 के बाद से राजनैतिक मूल्यों में बदलाव आया है। आज उस तरह के राजनीतिक कार्यकर्ता बन भी नहीं रहे हैं और जो सही कार्यकर्ता हैं वह हाषिए पर धाकेल दिए गए हैं। बिल्डर, माफिया और पूंजीपति मिलकर राजनीतिक दलों का एजेन्डा तय कर रहे हैं। अगर अनिल अंबानी और मुकेष अंबानी के चहेते कांग्रेस में हें तो भाजपा में भी हैं। यही कारण है कि अगर जगनमोहन को मुख्यमंत्री बनाए जाने के लिए आंधा्र के बिल्डर्स लॉबिंग करते हैं तो समाजवादी पार्टी को फिरोजाबाद में लोकसभा चुनाव लड़ाने के लिए मुलायम के पुत्र अखिलेष की पत्नी ही उम्मीदवार मिलती हैं और सारे कार्यकर्ता दरकिनार कर दिए जाते हैं। वे अध्यापक, छात्र और पढ़े लिखे लोग जो व्यवस्था की कमियों से दुखी होते थे भ्रष्टाचार को खत्म करने के अरमान मन में पाले रहते थे वे अब हाषिए पर हैं और आने वाला समय या तो जगनमोहन, चौटाला, राबड़ी, डिम्पल यादव जैसों का होगा या फिर अनु टण्डन, निषिकांत और नाथवानी जैसे पूंजीपतियों के नुमाइन्दों का। जगनमोहन प्रकरण लोकतंत्र की हत्या की पटकथा लिखे जाने की गवाही दे रहा है। ( लेखक राजनीतिक समीक्षक हैं और 'दि संडे पोस्ट' में सह संपादक हैं।)

बुधवार, 8 जुलाई 2009

गजनी के भारतीय अवतारों को सजा मिले
- अमलेन्दु उपाध्याय -आखिरकार लिब्राहन आयोग की बहुप्रतीक्षित रिपोर्ट आ ही गई। इस हाई प्रोफाइल केस की जांच रिपोर्ट आने में ही कुल जमा सत्रह वर्ष लग गए। जाहिर है कि ऐसी गति से तो मुकदमें मे सजा सुनाए जाने में सत्रह सौ साल लगेंगे, वह भी तब, जब मुकदमा कायम होगा। इस सबके परे बहस का विषय यह है कि क्या इस आधार पर दोषियों को माफ कर दिया जाए कि सजा होने में कई साल लग जाएंगे? बहरहाल इस रिपोर्ट पर राजनीति शुरू हो गई है और हर कोई अपने हिसाब से कार्रवाई चाहता है।
लिब्राहन आयोग ने भाजपा समेत कई बडे दलों को पशोपेश में डाल दिया है और अनुमान लगाया जा रहा है कि जो रिपोर्ट जस्टिस लिब्राहन ने दी है उसका हश्र भी पहले बन चुके अन्य आयोगों की तरह होगा, जिनमें से कई की रिपोर्ट बस्ते में से निकलने के लिए तडपडा रही हैं और कई की रिपोर्ट पर आज तक कोई कार्रवाई नहीं हुईर्। कहा जा रहा है कि इस रिपोर्ट ने मरती हुई भाजपा के लिए संजीवनी का काम किया है और भाजपा चाहती है कि सरकार इस रिपोर्ट पर कार्रवाई करे ताकि वह एक बार फिर इंसानों की लाशों की राजनीति करके दिल्ली की सल्तनत पर पहुंचने का सपना साकार कर सके। लेकिन अब भाजपा के यह सपने साकार नहीं होंगे। और अगर मान भी लिया जाए कि इससे भाजपा को पांच साल बाद होने वाले चुनाव में कोई फायदा होगा, तो क्या इस अंदेशे के कारण बाबरी मस्ज्दि के क.ातिलों को खुला छोड दिया जाए? हालांकि यह कल्पित भय है और ऐसा भी नहीं है कि हमेशा ऐसी घटनाओं में सांप्रदायिक ताकतों को फायदा ही होता हो। बाल ठाकरे का मतदान का अधिकार छीना गया इससे शिवसेना को लाभ नहीं हुआ बल्कि वह पिछड गई। इसी तरह इस लोकसभा चुनाव के दौरान आडवाणी जी आतंकवाद पर बहुत चिल्लाए, मुंबई में २६/११ हुआ लेकिन जब इसके बाद चुनाव हुए तो भाजपा बुरी तरह पिछड गई।
फिर अभी लोकसभा चुनाव में पांच साल हैं, अगर सरकार रिपोर्ट पर कार्रवाई करने के प्रति वास्तव में ईमानदार है तो फास्ट ट्रैक कोर्ट कर गठन करके हर रोज सुनवाई कराकर दो महीने में फैसला भी करवा सकती है। ऐसे में भाजपा क्या फायदा उठा पाएगी? चूंकि जब पांच साल बाद इसका लाभ उठाने का अवसर आएगा तब तक आडवाणी जी सियासत से विदा हो चुके होंगे। कल्याण सिंह और उमा भारती भाजपा से बाहर हैं हीं। बाकी जिन लोगों को इस केस में सजा हो सकती है वह लोग राष्ट्रीय अपील नहीं हैं। इसलिए भाजपा कोई फायदा नहीं उठा पाएगी।
दरअसल कांग्रेस की दिक्कत यह है कि संभवतः इस रिपोर्ट में पी वी नरसिंहाराव और कांग्रेस की भूमिका पर भी सवाल उठाए गए हैं। ऐसे में क्यों कांग्रेस ईमानदारी से इस रिपोर्ट पर कार्रवाई करेगी? ताज्जुब इस बात का है कि मुलायम सिंह के नेतृत्व वाली समाजवादी पार्टी जो लगातार बाबरी मस्जिद की कमाई खाती रही है, इस रिपोर्ट पर चुप लगा गई है। इसका कारण है। सपा के नए दोस्त कल्याण सिंह भी इस कांड में दोषी हैं जबकि मुलायम सिंह यादव चुनाव के दौरान कल्याण के गुनाहों को माफ करके घोषणा कर चुके हैं कि बाबरी मस्जिद अब मुद्दा नहीं रहा, जिसका उन्हें इस चुनाव में खमियाजा भी भुगतना पडा। अब अगर मुलायम सिंह कुछ बोलते हैं तो उनके दोस्त कल्याण सिंह के लिए मुश्किलें पैदा हो जाएंगी।
इस मसले में जल्द से जल्द दोषियों को सजा मिलनी चाहिए। ऐसा इसलिए नहीं कि कुछ लाख गुंडों ने एक मस्जिद तोड दी थी। ऐसे तो हर रोज कहीं न कह मस्जिद और मंदिर तोडे ही जाते हैं। नरेन्द्र मोदी ने अभी गुजरात में कई मन्दिर गिरवाए। पाकिस्तान में कई मस्जिदें गिराई गईं। कश्मीर के राजा हर्ष ने तो बाकायदा मंदिर तोडने के लिए ’देवोत्पतन्नायक‘ नाम के अधिकारी की नियुक्ति की थी। इस केस में दोषियों को सजा मिलना इसलिए जरूरी है क्योंकि बाबरी मस्ज्दि शहीद करने वाले गुंडों ने इस मस्जिद के बहाने इस देश के धर्मनिरपेक्ष संविधान पर हमला किया था, इंसानियत को तार तार किया था। स्वयं तत्कालीन राष्ट्रपति को यह कहने के लिए मजबूर होना पडा था कि बाबरी मस्जिद को गिराने वाले गुंडे थे।
हालांकि कल्याण सिंह का लिब्राहन आयोग में गवाही में कहना कि ऐसा करने को कोई पूर्वनियोजित कार्यक्रम नहीं था, सत्य ही है। दरअसल भाजपा बाबरी मस्जिद गिराना नहीं चाहती थी वह केवल इसे मुद्दा बनाकर रखना चाहती थी ताकि इस पर सियासत करती रहे और इसके जरिये धन इकठ्ठा होता रहे। लेकिन भाजपा ने जिन बंदरों की फौज अयोध्या में ६ दिसंबर १९९२ को अयोध्या में जमा की उस पर उसका नियंत्रण नहीं रहा। वरना महमूद गजनवी के संघी अवतार तो बाबरी मस्जिद को सोने का अंडा देने वाली मुर्गी समझकर पाल रहे थे लेकिन उनके पाले बंदरों ने ऐन मौके पर काम खराब कर दिया। अब अगर इन नागपुरियों ने बाबरी मस्जिद नहीं गिराई थी तो यह इसका श्रेय क्यों लेना चाहते हैं और जब श्रेय लेना चाहते हैं तो लिब्राहन की रिपोर्ट से घबरा क्यो रहे हैं।